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________________ 300 :: तत्त्वार्थसार अपायविचय का स्वरूप कथं मार्गं प्रपद्येरन्नमी उन्मार्गतो जनाः। अपायमिति' या चिन्ता तदपायविचारणम्॥41॥ अर्थ-सुख के विरुद्ध मार्ग से हटकर प्राणी सुमार्ग में कैसे प्रवृत्त हो सकते हैं ? इस प्रकार दुःखी संसारी जीवों के दुःख दूर होने का और सुख में प्रवृत्त करने के उपाय का चिन्तवन करना अपायविचार अथवा अपायविचय धर्म्यध्यान है। दुःख दूर होने का नाम यहाँ अपाय है। उसका विचार करना सो अपायविचय है। सन्मार्ग प्रवृत्ति कराने का उपाय विचारना भी इसी ध्यान में होता है, इसीलिए उपायविचय भी इसी का दूसरा नाम हो सकता है, परन्तु प्रतिषेध की मुख्यता से अपायविचय नाम कहा गया है। असत्य मार्ग से अपाय (दूर होने, बचने) का चिन्तवन करना सो अपायविचय धर्म्यध्यान है। जैसे अन्धा मनुष्य जंगल में पड़ा हो और किसी ग्राम की ओर जाना चाहता हो, तो कोई मार्गदर्शक न मिलने पर यों ही इधर-उधर भटकता रहेगा। उसका इष्ट स्थान पर पहुँचना कठिन है। इसी प्रकार सच्चे धर्म का अवलम्बन न हो तो मोक्ष के सुख से जीव सदा ही वंचित रहेगा। संसार में ऐसे जीव बहुत हैं जो न्तिक सुख चाहते हैं, परन्तु सच्चे उपायों को नहीं जानते, इसलिए इष्ट विषय को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उनका भटकना अन्धे के समान है। वे जीव संसार में ही भटकते हैं और दु:खी होते हैं। ऐसे चिन्ताप्रबन्ध को अपायविचय धर्म्यध्यान कहते हैं। विपाकविचय का स्वरूप द्रव्यादिप्रत्ययं कर्मफलानुभवनं प्रति। भवति प्रणिधानं यद् विपाकविचयस्तु सः॥ 42॥ अर्थ-कर्म की स्थिति पूरी हो जाने पर जो कर्म का फल प्राप्त होता है उसके लिए निमित्त कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव होते हैं। उन निमित्तों के वश होकर ही कर्म फल दे सकते हैं। निमित्तों की प्रबलता हो तो कर्म स्थिति पर्ण होने से पहले भी उदीर्ण हो जाते हैं। स्थिति पर्ण होने से पहले जो फल भोगने में आता है उसे उदीरणा कहते हैं। स्थिति पूर्ण करके यदि फल भोगा जाए तो उसे उदय कहते हैं। चाहे उदयरूप फल भोगा जाए और चाहे उदीरणारूप, फल भोगने पर निर्जरा अवश्य हो जाती है। निमित्त होने पर उदयकाल में फल तो सभी कर्मों का होता है, किन्तु कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका अनुभवयोग्य और नामानुसार फल उदीरणा होने पर ही होता है। जैसे मैथुन में प्रवृत्ति होना वेद कर्म का कार्य है, परन्तु यह वेद की उदीरणा होने पर ही होता है। वेद का उदय सदा ही रहता है, परन्तु सदा मैथुन में प्रवृत्ति नहीं होती। इस तरह विचार में एकाग्रता होना विपाकविचय धर्मध्यान है। 1. 'अपायमिति वा' ऐसा पाठ भी हो सकता है। तब अर्थ ऐसा होगा कि जन सन्मार्ग में कैसे प्रवृत्त हों अथवा उन्मार्ग से दूर कैसे हों। अर्थात् 'या' की जगह 'वा, रखने से विधिमुख व निषेधमुख ऐसे दो पक्ष सिद्ध हो जाते हैं। 2. असन्मार्गादपायः स्यादनपायः स्वमार्गतः। स एवोपाय इत्येष ततो भेदेन नोदितः। श्लो.वा., भा. 7, अ. 9, सू. 36 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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