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________________ 298 :: तत्त्वार्थसार भिन्न हैं। प्राप्त हुए इष्ट का वियोग हो जाने पर या उसे पुनः प्राप्त करने की चिन्ता में लगने से इष्टवियोगज आर्तध्यान होता है। निदान वहाँ पर होता है जिसकी कि प्राप्ति हुई ही नहीं है। केवल उसके संकल्प से जीव लालायित बनता है। निदान में भी जो वस्तु चाही जाती है, वह इष्ट अवश्य होती है, परन्तु वह अभी तक प्राप्त ही नहीं हुई है तो उसका वियोग कैसा? अथवा पूर्वजन्मादिक में प्राप्त भी हुई हो, परन्तु अब प्राप्त होने की-सी समझ कहाँ हैं? क्योंकि; विस्मरणरूप समारोप द्वारा भूल जाने से अब वह नवीन ही माननी चाहिए। यदि ऐसा न हो तो संसार में कोई चीज नवीन ही न रहे, इसलिए निदान व इष्टवियोगज आर्तध्यान में परस्पर अन्तर है। ___इसी प्रकार अनिष्टसंयोग और वेदना में भी अन्तर है, क्योंकि, वेदना स्वयं दुःखरूप है और अनिष्टसंयोग दुःख का कारण होता है। जैसे, विष या शस्त्र, शत्रु आदिक सम्बन्ध दुःख का कारण होने से अनिष्ट माना जाता है। मनुष्य आगामी दुःखोत्पत्ति की आशंका करके डरते हैं और कारण के हटाने की चिन्ता में लगते हैं, परन्तु वेदना स्वयं दुःखरूप है, इसलिए इसके होने से जीव स्वस्थ नहीं रह पाता है। वह इसे हटाने की चिन्ता में लगता है। इस प्रकार अनिष्ट संयोग और वेदना भिन्न-भिन्न हैं। रौद्रध्यान का भेदपूर्वक स्वरूप हिंसायामनृते स्तेये तथा विषयरक्षणे। रौद्रं कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः ॥ 37॥ अर्थ-क्रोधादि कषायपूर्वक हिंसा करने में रत होना, झूठ बोलने में रत होना, चोरी करने में रत होना या विषयों की रक्षा करने में मगन होना सो रौद्रध्यान है। हिंसा, झूठ, चोरी, विषयसंरक्षण-ये विषय भिन्न-भिन्न होने से रौद्रध्यान भी चार प्रकार का है-(1) हिंसानन्द, (2) मृषानन्द, (3) स्तेयानन्द, (4) विषयसंरक्षणानन्द। ध्यान का लक्षण व उत्कृष्ट कालप्रमाण एकाग्रत्वेऽतिचिन्ताया निरोधो ध्यानमिष्यते। अन्तर्मुहूर्ततः तच्च भवत्युत्तमसंहतेः ॥38॥ अर्थ-अनेक विषयों में जो चिन्ता पसर रही है उसका निरोध करके एक विषय में स्थिर करना सो ध्यान है। उत्तम संहननवाले जीव में वह ध्यान अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं टिकता है। जो जीव हीन संहननवाले हैं उनका ध्यान उनसे भी कम समय तक रह पाता है। यह काल की मर्यादा है। उत्तम संहनन तीन होते हैं : (1) वज्रर्षभनाराच संहनन, (2) वज्रनाराच संहनन, (3) नाराच संहनन। इन तीन संहननों में से भी मोक्षोपयोगी मात्र पहला संहनन ही है। शेष दो संहनन द्वारा ध्यान होता है। वह कर्मों का नि:शेष नाश नहीं कर सकता है। संहनन का अर्थ कह चुके हैं। 1. आद्यं संहननत्रयमुत्तमम्। तत्र मोक्षस्य कारणमाद्यमेकमेव।-रा.वा., 9/27, वा.1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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