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________________ 296 :: तत्त्वार्थसार हटाने का प्रयोजन इसमें सिद्ध होता है, इसलिए इसे जुदा कहा है। धर्मों में भी त्याग - धर्म आ गया है, परन्तु वहाँ पर आहारादि दान करना त्याग का अर्थ होता है, इसलिए उससे भी यह एक अलग सिद्ध हो जाता है। प्रायश्चित्तों में जो व्युत्सर्ग कहा जाता है, उसका अर्थ और इसका अर्थ स्वरूप से जो जुदा नहीं होता है, परन्तु प्रयोजन दोनों के जुदे-जुदे हैं। प्रायश्चित्तों में जो व्युत्सर्ग है, वह व्रतों के अतिचारदोष दूर करने के लिए है, यहाँ पर जो व्युत्सर्ग है वह किसी प्रतिद्वन्द्वी के हटाने की इच्छा से नहीं, किन्तु उत्साह के बढ़ाने के लिए है और उत्तरोत्तर गुणों में वृद्धि होने के लिए है। इस प्रकार व्युत्सर्ग तप एक जुदा ही तप है जिसका दूसरे किसी भी व्रत में या धर्मादिक में अन्तर्भाव नहीं हो सकता । व्युत्सर्ग तप करने से ममत्व छूट जाता है, परिणाम निर्मल हो जाते हैं, जीवन की आशा का अभाव हो जाता है, दोष दूर होते हैं, मोक्षमार्ग की भावना सुदृढ़ हो जाती है । इत्यादि अनेकों इसके फल हैं। विनय तप के भेद दर्शन - ज्ञानविनयौ चारित्रविनयोऽपि च । तथोपचारविनयो विनयः स्याच्चतुर्विधः ॥ 30 ॥ अर्थ - दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय, विनय के ये चार भेद हैं। दर्शनविनय का स्वरूप यत्र निःशंकितत्वादि - लक्षणोपेतता भवेत् । श्रद्धाने सप्ततत्त्वानां सम्यक्त्वविनयः स हि ॥ 31 ॥ अर्थ-जहाँ पर सातों तत्त्व का श्रद्धान ऐसा दृढ़ हो और यथार्थ हो कि शंकादि दोषों का लेश भी न दिख पड़े। इस प्रकार निःशंकितादि गुणों से युक्त सम्यग्दर्शन रखना सो सम्यग्दर्शन विनय है। सम्यक्त्वविनय या दर्शनविनय भी इसी को कहते हैं । ज्ञानविनय का स्वरूप ज्ञानस्य ग्रहणाभ्यास-स्मरणादीनि कुर्वतः । बहुमानादिभिः सार्द्धं ज्ञानस्य विनयो भवेत् ॥ 32 ॥ अर्थ - बहुमानपूर्वक, आलस्य रहित, शुद्धान्तःकरण द्वारा, देशकाल की विशुद्धि रखते हुए मोक्षोपयोगी ज्ञान को स्वीकार करना, ज्ञान का अभ्यास करना, ज्ञान का स्मरण रखना - यही ज्ञानविनय' है। चारित्रविनय का स्वरूप Jain Educationa International दर्शन - ज्ञानयुक्तस्य या समीहितचित्तता । चारित्रं प्रतिजायेत चारित्रविनयो हि सः ॥ 33 ॥ 1. बहुमाने समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम् । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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