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________________ छठा अधिकार :: 273 अर्थ-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य-ये दश धर्म के लक्षण हैं। क्षमा धर्म का स्वरूप क्रोधोत्पत्ति-निमित्तानामत्यन्तं सति सम्भवे। आक्रोश-ताडनादीनां कालुष्योपरमः क्षमा ॥14॥ अर्थ-गाली सुनना, मार खाना-इत्यादि बातों से क्रोधं उत्पन्न होना सम्भव है, परन्तु ऐसे क्रोध उत्पन्न होने के निमित्त अत्यन्त सम्भव हो जाने पर भी क्रोध उत्पन्न न होने देना सो क्षमा है। मार्दव धर्म का स्वरूप अभावो योऽभिमानस्य परैः परिभवे कृते। जात्यादीनामनावेशाद् मदानां मार्दवं हि तत् ॥15॥ अर्थ-जात्यादि निमित्तों से होनेवाला मद उत्पन्न न होने पाए, यदि ऐसी सावधानी रखी जाए तो अभिमान उत्पन्न न होगा। बस, इसी का नाम मार्दव है। दूसरे लोग चाहे जितना तिरस्कार करें, परन्तु उस समय आप बल-बुद्धि आदि किसी बात से कम न होते हुए भी यदि अभिमान न करें तो परिणामों में मृदुता रह सकती है। अभिमान के कारण आठ होते हैं-1. जाति, 2. कुल, 3. रूप, 4. बल, 5. ऋद्धि, 6. ज्ञान, 7. तप और 8. शरीरसौन्दर्य। आर्जव धर्म का स्वरूप वाड्मनःकाययोगानामवक्रत्वं तदार्जवम्। अर्थ-वचन-मन-काय की प्रवृत्तियों को कुटिल न करना, किन्तु सरल रखना सो आर्जव है। शौच धर्म का स्वरूप__ परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदतः ॥16॥ चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते। अर्थ-भोग का, उपभोग का, जीने का और इन्द्रियविषयों का-इन चार बातों' का लोभ होना सम्भव है। उन चारों ही प्रकार के लोभ का त्याग करने से शौच प्राप्त होता है। मलिनता का और ग्लानि का सब से मुख्य कारण लोभ है। उसके छूटते ही आत्मा में जो अत्यन्त प्रसन्नता या निर्मलता भासने लगती है वही असली शौच है। 1. वार्तिककार ने जीवन का, आरोग्य का, इन्द्रियों का और उपभोग का ऐसे चार विषयों का लोभ चार प्रकार से माना है। तच्चतुर्विधं जीवितारोग्येन्द्रियोपभोगभेदात्।'-रा.वा., 9/6, वा. 8 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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