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________________ पाँचवाँ अधिकार :: 225 इसी प्रकार संयोग सम्बन्ध जब कि भिन्न वस्तुओं का होता है तो गुणगुणी का सम्बन्ध भी गुणगुणी को परस्पर में भिन्न सिद्ध करेगा और वह सम्बन्ध भी गुणगुणी से एक भिन्न ही पदार्थ है ऐसी सर्वथा भेद की कल्पना करना आदि सब ऐकान्तिक मिथ्यात्व के उदाहरण हैं। वस्तुओं के सर्व स्वभाव एकान्त रूप या किसी एक-एक प्रकार के ही नहीं हैं तो भी सर्वत्र एकान्त मानना यही एकान्त मिथ्यात्व का अर्थ है। सांशयिक मिथ्यात्व का लक्षण किं वा भवेन्न वा जैनो धर्मोऽहिंसादिलक्षणः। इति यत्र मतिद्वैधं भवेत्सांशयिकं हि तत्॥5॥ अर्थ-जैन धर्म अहिंसामय है अथवा किसी-किसी विषय में हिंसामय भी है, इत्यादि संशय युक्त मन की द्विविधा ही सांशयिक मिथ्यात्व है। जो पदार्थ निश्चय रूप से मालूम न पड़ा हो उसके विषय में संशय होना संशय मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि, बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानियों को भी संशय उत्पन्न होता है। जब तक छद्मस्थ अवस्था है तब तक संशय रहना असम्भव नहीं है। श्रुतज्ञान के सूक्ष्म तत्त्वों में साधुओं तक को संशय हो जाता है। तभी तो आहारक शरीर बनाकर केवलियों के दर्शन करके मुनि अपने संशय दूर करते हैं। आहारक शरीर बनाने का यह भी एक प्रयोजन माना गया है, इसीलिए संशय होना कोई अनुचित नहीं है, परन्तु आगम व युक्ति का प्रमाण मिलते हुए भी तत्त्व व धर्म के मार्ग में संशय रखना निश्चय से संशय मिथ्यात्व है। ऐसे संशय होने के कारण कई होते हैं। एक कारण यह होता है कि चिरकाल से मिथ्या तत्त्वोपदेश मिलता रहा हो। दूसरा कारण बुद्धि व भद्र परिणामों की कमी। तीसरा कारण गुरुकुल में रहकर सिद्धान्त का अध्ययन न रना। चौथा कारण धर्म के नियमों को कष्ट समझना। पाँचवाँ कारण निरंकुशता में आनन्द मानना । छठा कारण सर्व विषयों को खंडित करने का अभिमान तथा विनोद रखना। इस तरह कारणवश मनुष्य सच्चे तत्त्वोपदेश में तथा धर्म में भी संशय उत्पन्न करने लगता है। यह संशय मिथ्यात्व तभी कहलाता है जबकि सदा ही संशय रखने की आदत पड़ जाती है और युक्ति तथा आगम के प्रमाण मिलते हुए भी उन प्रमाणों की तरफ ध्यान नहीं पहुँचाना चाहता। जबकि किसी निश्चय के लिए संशय उपस्थित किया जाता हो और विचारोत्तरकाल में ठहरे हुए सिद्धान्त को स्वीकार करता हो तो वह संशय है, परन्तु मिथ्यात्व नहीं है। जैन धर्म व जैन व्रत सत्य है या नहीं यह बात तत्त्वों की परीक्षा करने से मालूम हो सकती है। जैन तत्त्वों में पूर्वापर विरोध सिद्ध नहीं होता, इसीलिए जैन धर्म की सत्यता में शंका रखना मिथ्यात्व है। __ आगम को स्वतः प्रमाण जब तक न माना जाए तब तक धर्म का स्वरूप निश्चित नहीं हो सकता। आगम तभी स्वतः प्रमाण मानने योग्य हो सकता है जबकि उसे सर्वज्ञ के उपदेश के अनुकूल माना जाए। जो देशकाल की तथा मनुष्यों की इच्छा की अनुकूलता देखकर बनाया गया हो वह एक तो वास्तविक सुखसाधक नहीं हो सकता, क्योंकि मनुष्यों की इच्छाएँ स्वभाव से स्वार्थपरक होती हैं स्वार्थपरक इच्छाओं का जब जोर बढ़ता है तब चोरी आदि अन्याय भी इच्छानुकूल हो जाते हैं। दूसरी बात यह है कि वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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