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चतुर्थ अधिकार :: 209 लिए उन्हें आमन्त्रित कर दूसरे कामों में लग जाना और बहुत समय बिताकर भोजन देना यह कालातिक्रम दोष है। कालव्यतिक्रम का भी यही अर्थ है । (2) दूसरे कामों की व्यग्रता रहने से साधुओं को भोजन देने में स्वयं न लगना, किन्तु किसी दूसरे के हाथ से दिला देना या देने को कह देना सो परव्यपदेश दोष है । (3) कोई दूसरा गृहस्थ साधुओं को भोजन या देता हो तो उसके साथ ईर्ष्या करना अथवा अनादर के साथ भोजन देना सो मत्सर दोष कहलाता है । (4) सचित्तनिक्षेप या सचित्तपिधान उस दोष का नाम है जो किसी सचित्त चीज पर भोजन की सामग्री रख दी जाए। साधुओं के सचित्त वस्तुओं के खाने का तथा सब प्रकार के उपभोग का सम्पूर्णतया त्याग होता है क्योंकि, साधु सर्वथा हिंसात्यागी होते हैं, और सचित्त वस्तुओं में एकेन्द्रियादि-जीवों का सम्बन्ध रहता है जिसका कि उपभोग करने से विध्वंस हो जाता है, इसलिए किसी सचित्त पत्ते पर रखा हुआ भोजन देना भी दोष है, और यह दोष दातार को लगता है, क्योंकि, देनेवाले का प्रकरण 1 (5) भोजन को सचित्त' पत्ते से ढककर रखना और वह भोजन साधु को देना सो सचित्तपिधान नाम का दोष है ।
श्री समन्तभद्र स्वामी कालातिक्रम दोष को न लिखकर अस्मरण दोष लिखते हैं । अस्मरण अर्थात् भूल जाना । भावार्थ एक ही है। किसी दूसरे काम में लग जाने से योग्य काल का विलम्ब हो जाना सम्भव है । स्मरण न रहने से भी काल का विलम्ब ही होगा । अन्यव्यपदेश दोष के स्थान में अनादर दोष लिखते हैं। मत्सरता का लक्षण राजवार्तिक में अनादर किया गया है, परन्तु मत्सरता दोष एक जुदा ही समन्तभद्र स्वामी ने माना है, इसलिए यह समझना चाहिए कि अनादर होने पर पर - व्यपदेश कार्य है और अनादर कारण है। तत्त्वार्थसूत्र तथा इस तत्त्वार्थसार में परव्यपदेश ही गिनाया गया है, और समन्तभद्र स्वामी ने कारण की मुख्यता से अनादर को गिनाया है, अथवा किसी अपेक्षा से भी मानिए, कालातिक्रम तथा परव्यपदेश के स्थान में अनादर व अस्मरण ये दो नाम समन्तभद्र स्वामी ने दिए हैं।
सल्लेखनाव्रत के पाँच अतिचार
पञ्चत्वजीविताशंसे तथा मित्रानुरंजनम् ।
सुखानुबन्धनं चैव निदानं चेति पञ्च ते ॥ 98 ॥
अर्थ - (1) प्राण निकलने में विलम्ब समझकर शीघ्र मरने की इच्छा करना सो मरणाशंसा नाम सल्लेखना का अतिचार है। (2) शीघ्र मरण होता हुआ जानकर, कुछ और भी अधिक जीने की आकांक्षा करना सो जीविताशंसा नाम अतिचार है। (3) मरते हुए भी अपने मित्रों के साथ का अनुराग न छूटना सो मित्रानुराग नाम अतिचार है । बाल्यावस्था में जो मित्रों के साथ क्रीड़ा की थी, धूल में लोटते थे वह सब याद आने से मित्रानुराग उत्पन्न होता है। (4) खाने के, पीने के, सोने के, क्रीडा करने के निमित्त
1. सचित्त अर्थात् सजीव हरे पत्ते, फूल इत्यादि, क्योंकि पत्तों के आश्रय सूक्ष्म त्रस जीव चिपके रहते हैं। 2. हरितपिधाननिधाने ह्यनादराऽस्मरणमत्सरत्वानि । वैयावृत्यस्यैते व्यतिक्रमा पंच कथ्यन्ते ॥ 21 ॥ रत्नक. श्री. 3. प्रयच्छतोप्यादराभावो मात्सर्यम् । - रा.वा., 7/36, वा. 4
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