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________________ चतुर्थ अधिकार :: 187 धर्मशास्त्रों में जहाँ सत्यवचन का विचार आता है वहाँ हितसाधन' की ही मुख्यता देखी जाती है। जो वचन स्वपर-हितसाधक हो वही सत्य वचन माना जाता है। इससे उलटा जो वचन अहितसाधक है उसे असत्य वचन कहते हैं। अहितसाधक को ही यहाँ असदर्थवचन या मिथ्या वचन कहा है। इसके सिवाय प्रमाद भी देखना चाहिए। जो वचन प्रमादवश बोला गया हो वही असत्य या अहितसाधक होगा। प्रमाद अहित की जड़ है क्योंकि, एकाध बार सुनने वाले की असत्य वचन द्वारा भले ही कोई हानि न हो, परन्तु प्रमाद द्वारा बोलनेवाले का तो सुखचैतन्य रूप भावप्राण नष्ट हो ही जाता है, इसलिए प्रमाद रखकर बोला गया अहितसाधक वचन असत्यवचन है और वह पाप है। हिंसा के समान ही इसका सर्व सिद्धान्त है। 3. चौर्य का लक्षण प्रमत्तयोगतो यत्स्याददत्तार्थपरिग्रहः। प्रत्येयं तत्खलु स्तेयं सर्वं संक्षेपयोगतः॥76॥ अर्थ-प्रमाद योगपूर्वक जो बिना दिये हुए का ग्रहण करना वह चोरी समझनी चाहिए, यह संक्षेपार्थ हुआ। इसका विस्तार हिंसा-झूठ की तरह समझना चाहिए। जहाँ देने-लेने का व्यवहार सम्भव हो वहीं पर दत्त-अदत्त का विचार हो सकता है। रास्ते पर से चलना-इसके लिए किसी की आज्ञा लेनी नहीं पड़ती, इसलिए उस रास्ते का साधु भी उपयोग करते हैं, परन्तु चोरी का दोष नहीं लगता। हाँ, जिस रास्ते पर से सर्वसाधारण को जाने की आज्ञा न हो उस पर से चलनेवाला चोरी का भागी अवश्य होगा। प्राचीन पद्धति ऐसी थी कि गृहस्थ को जल व माटी की छूट रहती थी, इसलिए जल माटी लेनेवाला चोरी का दोषी नहीं गिना जाता था, परन्तु जिस जल व माटी की छूट न हो उसके ले लेने से अवश्य चोरी का दोष आएगा। कर्म , नोकर्मों का संग्रह जीव ही करता है और वह किसी का दिया हुआ नहीं होता, परन्तु वहाँ भी चोरी का दोष नहीं है, क्योंकि, जल या माटी की तरह उसका निषेध भी नहीं है। जल-माटी का एकाध बार निषेध भी हो सकता है, परन्तु कर्म नोकर्म लेने-देने के विषय ही नहीं है, इसलिए वह चोरी का विषय नहीं है। तात्पर्य इतना ही लेना चाहिए कि दूसरे की चीज, जिसका कि वह उपभोग कर रहा हो या करनेवाला हो और वह दूसरे को देना भी न चाहता हो, तथा उसे ले लेने से स्वामी की हानि भी होना सम्भव हो वह चीज कभी न छूनी चाहिए, यह सरल व्याख्यान है। 1. सच्छब्दोऽत्र प्रशंसावाची असदप्रशस्तमित्यर्थः।-सर्वा सि., वृ. 689 2. स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान्। पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ॥ (सर्वा. सि. वृ. 687) यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानं। पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु॥ पु.सि., श्लो. 47 3. 'जलमृतिका बिनु और नाहिं कछु गहै अदत्ता' यह दौलतरामजी ने छहढाला में कहा है। 4. यद्येवं कर्मनोकर्मग्रहणमपि स्तेयं प्राप्नोति अन्येनादत्तत्वात् एवं भिक्षोमिनगरादिषु भ्रमणकाले रथ्याद्वारादिप्रवेशाददत्तादानं प्राप्नोति? नैष दोषः, सामान्येन मुक्तत्वात्। तथाहि, अयं भिक्षुः पिहितद्वारादिषु न प्रविशति अमुक्तत्वात्। अथवा प्रमत्तयोगादिति वर्तते। न च रथ्यादिप्रविशतः प्रमत्तयोगोऽस्ति। तेनैतदुक्तं भवति-यत्र संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयम्। सर्वा.सि., वृ. 691 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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