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________________ चतुर्थ अधिकार :: 185 इन गतियों में जीवों को पराधीन कर रखनेवाले जो शरीर होते हैं वे अपवित्र, नश्वर, जड़, रोगों से भरे होते हैं और जीव के शान्त एवं ज्ञानानन्द स्वभाव के नाशक होते हैं। इन शरीरों के टिकने की क्षणभर भी आशा नहीं रहती। जलबदबद के समान देखते-देखते विघट जाते हैं। शरीर विघटते ही जीव की जो विषयभोगों में शाश्वत जैसी आशा थी वह नष्ट हो जाती है। जीव जिन सुखसामग्रियों को शाश्वतिक समझकर बड़े प्रेम से इकट्ठा करता था, उन्हें अचानक छोड़कर परलोक में जाना पड़ता है। शरीर नष्ट होते ही जीव की सुधबुध बिगड़ जाती है और शरीर के बिना जब अकेला वह रह जाता है तब कर्म की अशान्ति या प्रेरणा से दूसरे शरीर को धारण करने में लगता है, यही अनादि की दशा है। दूसरे शरीर की भी प्रथम शरीर की तरह अवस्था होती है। इसी प्रकार यह जीव जब तक कर्मबद्ध है तब तक दुःख भोगता है। जीव यदि इस असली, अपनी दुःखदाई हालत पर उक्त विचार करे तो संसार-शरीर से उद्विग्न होकर विरक्त हो जाए। रागद्वेष के रहने से जो परतन्त्रताजनक कर्मबन्ध होता है, वह वीतराग बनने पर न हो और पूर्वबद्ध कर्मों का क्रम से नाश हो जाए, जिससे कि जीव सुखी हो। अब पाँचों पापों के लक्षण दिखाते हैं 1. हिंसा का लक्षण द्रव्यभावस्वभावानां प्राणानां व्यपरोपणम्। प्रमत्तयोगतो यत्स्यात् सा हिंसा संप्रकीर्तिता॥74॥ अर्थ-इन्द्रियों की प्रवृत्ति पाप में हो रही है या पुण्य में, इस बात का विचार न करना इसी का नाम प्रमाद' है। प्रमाद का अर्थ आलस भी होता है, परन्तु वह अर्थ यहाँ इष्ट नहीं है। अथवा दोनों अर्थों में कोई अन्तर नहीं है। लोग जितने आलस को आलस कहते हैं वह आलस यहाँ पर्याप्त नहीं है। प्रमाद का अर्थ आलस ही नहीं, बल्कि सावधानी न रखना यह अर्थ यहाँ इष्ट है। मद्यादिक पदार्थ मूर्च्छित करनेवाले होते हैं। उस मूर्छा को भी लोग प्रमाद कहते हैं, उसी प्रकार जो कर्म-पुद्गल के द्वारा हिताहित की सावधानी नहीं रहती वह मूर्छा या प्रमाद कहा जाता है। 'कुशलेषु अनादरः प्रमादः' शुभ कार्य करने में उत्साह नहीं होना प्रमाद है। उस प्रमाद का स्वरूप ठीक पहचानने में आवे, इसलिए उसके भेद कर दिखाते हैं। स्त्रीकथा, चोरकथा, राष्ट्रकथा, भोजनकथा इन कथाओं में फँसने वाला जीव-आत्म सावधानी से पराङ्मुख हो जाता है, इसलिए ये चारों कथाएँ प्रमाद हैं। इन्हें विकथा भी कहते हैं। पाँच इन्द्रियों की प्रवृत्ति यदि विषयों में भटकती है तो उस अपेक्षा से उन पाँचों को भी प्रमाद ही कहना चाहिए। क्रोधादि चारों कषाय तो विषयों में फँसाने के मूल कारण हैं, इसलिए इन चारों को भी प्रमाद कहते हैं। इस प्रकार चार विकथा प्रमाद, पाँच इन्द्रिय प्रमाद और चार कषाय प्रमाद-ये मिलकर तेरह प्रमाद हुए। प्रणय और निद्रा ये दोनों भी प्रमाद कहलाते हैं। ये सब मिलकर प्रमाद के भेद पन्द्रह हो गये। जितनी कुछ प्रवृत्ति में असावधानी देखने में आती है वह इन पन्द्रह भेदों के भीतर गर्भित हो जाती है। 1. अनवगृहीतप्रचारविशेष:प्रमत्तः । इन्द्रियाणां प्रचारविशेषमनवधार्य प्रवर्त्तते यः स प्रमत्तः।-रा.वा. 7/13, वा. 1 2. पंचदशप्रमादपरिणतो वा।-रा.वा. 7/13, वा. 3 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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