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________________ तृतीय अधिकार :: 127 व्यवहार काल-समय के प्रतीक ज्योतिर्गतिपरिच्छिन्नो मनुष्या क्षेत्रवर्त्यसौः। यतो नहि वहिस्तस्माज-ज्योतिषां गतिरिष्यते॥49॥ अर्थ-इस व्यवहार काल की प्रवृत्ति मनुष्य क्षेत्र में सूर्यादिकों के गमन से सिद्ध होती है। क्योंकि, सूर्यादि ज्योतिश्चक्र का गमन मनुष्यलोक के भीतर ही है; बाहर नहीं है। सूर्यादिकों के गमन में दिन और रात का विभाग सिद्ध होता है। दिन-रात का विभाग सिद्ध हुआ कि घड़ी, मुहूर्त, मास, वर्ष आदि की कल्पनाएँ सहज में ही सिद्ध हो जाती हैं; इसी का नाम व्यवहार काल है। जहाँ पर सूर्यादिकों की गति नहीं होती, ऐसे क्षेत्र अढ़ाई द्वीप के बाहर के द्वीप, समुद्र हैं तथा स्वर्ग, नरकादिक हैं। वहाँ पर दिन-रात की कल्पना भी नहीं होती है, अतएव इस प्रकार का व्यवहार काल भी वहाँ पर नहीं है। यद्यपि इस प्रकार का काल-व्यवहार वहाँ पर नहीं है, परन्तु अब तब आदि दूसरा अनेक प्रकार का व्यवहार वहाँ भी होना ही चाहिए, उस व्यवहार की सिद्धि वहाँ के अन्य पर्यायों द्वारा बन सकती है। उन कारणों का यहाँ पर प्रयोजन न होने से उल्लेख नहीं किया है। व्यवहार काल के पर्याय भूतश्च वर्तमानश्च भविष्यन्निति च त्रिधा। परस्पर व्यपेक्षत्वाद् व्यपदेशो ह्यनेकशः॥ 50॥ अर्थ-जो परिणामादि द्वारा सूचित होनेवाला व्यवहार काल है उसके भूत, भविष्यत्, वर्तमानये तीन भेद हैं। परस्पर एक-दूसरे की अपेक्षा जब देखने में आती है तभी भूतादि कल्पनाएँ होती हैं, इसीलिए इन कल्पनाओं के और भी अनेक तरह नाम रखे जा सकते हैं। जैसे, एक बीती हुई चीज को भूत कहते हैं, परन्तु जो उससे भी पहले बीत चुकी हो उसे परभूत कहेंगे और तब इसे अपरभूत कहेंगे। इसी प्रकार वर्तमान तथा भविष्यत् व्यवहार काल में भी भेद हो सकते हैं। भूत-भविष्यत् आदि व्यवहार का दृष्टान्त व निदान यथानुसरतः पक्ति बहूनामिह शाखिनाम्। क्रमेण कस्यचित्पुंस एकैकानोकहं प्रति॥51॥ सम्प्राप्तः प्राप्नुवन् प्राप्स्यन् व्यपदेशः प्रजायते। द्रव्याणामपि कालाणूः तथानुसरतामिमान्॥ 52॥ पर्यायं चानुभवतां वर्तनाया यथाक्रमम्। भूतादि-व्यवहारस्य गुरुभिः सिद्धिरिष्यते॥ 53॥ भूतादि-व्यपदेशोऽसौ मुख्यो गौणो ह्यनेहसि। व्यावहारिक-कालोऽपि मुख्यतामादधात्यसौ॥ 54॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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