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________________ तृतीय अधिकार :: 113 'अवस्थित' तथा 'नित्य' शब्द का अर्थ एक ही है, परन्तु सूत्रकारादिक द्रव्यों को नित्य भी कहते हैं और अवस्थित भी कहते हैं। वह इसलिए कि, जिस प्रकार एक-एक द्रव्य में कालक्रम से अनेक पर्याय होते हैं तो भी द्रव्य शाश्वत माना जाता है, इसी प्रकार एक द्रव्य स्वयं किसी दूसरे द्रव्यमय यदि हो जाए तो वह जुदा नहीं रहेगा तो भी सत् का निरन्वय नाश शायद न कहा जा सकेगा, क्योंकि जिस द्रव्य में वह लीन हुआ था वह अब भी कायम है। ऐसा होने से द्रव्यों की संख्या निश्चित करना कठिन हो जाएगा और वास्तविक सत्ता कदाचित् किसी एक द्रव्य की ही रह जाएगी। जिस प्रकार वस्तुगत पर्यायों की सर्वकालिक संख्या ठहराना कठिन है उसी प्रकार द्रव्यों की अवस्था भी होगी। परन्तु जिनेन्द्र भगवान का उपदेश ऐसा है कि द्रव्यों की मूलोत्तर संख्या सदा कायम रहती है। न्याय से भी यही सिद्ध होता है। यदि द्रव्यान्तरों में भी परिवर्तन होने लगा तो नाना विरुद्ध कार्यों की उत्पत्ति का वास्तविक कारण भेद सिद्ध न हो सकेगा, परन्तु कारण भेद के विना कार्यगत भेद मानना न्याय विरुद्ध है। कार्य की सत्ता दिखने से कारण को सत्रूप मानना, यह जैसा न्याय है मानना. यह जैसा न्याय है वैसा ही कार्यभेद से कारण का भेद मानना भी न्याय है । वेदान्ती लोग कार्य सत्ता से कारण सत्ता का होना मानकर' भी कार्यभेद से कारण-भेद की कल्पना नहीं करते। यह उनकी भल है। जैन सिद्धान्त में कार्यसत्ता से कारण-सत्ता के न्याय को नित्य विशेषण द्वारा स्वीकार किया है और कार्यभेद से कारणभेद के न्याय को अवस्थित-विशेषण देकर स्वीकार किया है। दोनों विशेषणों का यह जुदा-जुदा फल समझना चाहिए। द्रव्यों की मूर्तामूर्तत्व व्यवस्था शब्द-रूप-रस-स्पर्शगन्धात्यन्तव्युदासतः। पञ्चद्रव्याण्यरूपाणि रूपिणः पुद्गलः पुनः॥16॥ अर्थ-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव-ये पाँच द्रव्य शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श-गुणों से सर्वथा शून्य हैं, इसलिए इन्हें अरूपी तथा अमूर्तिक कहते हैं। पुद्गल द्रव्य में ये पाँचों गुण रहते हैं, इसलिए पुद्गलों को रूपी तथा मूर्तिक कहते हैं। रूपादि गुणों का नाम ही मूर्त है। द्रव्यों में उत्तर भेदों का निश्चय धर्माधर्मान्तरिक्षाणां द्रव्यमेकत्वमिष्यते। काल-पुद्गल-जीवानामनेकद्रव्यता मता॥17॥ अर्थ-धर्म, अधर्म, आकाश ये तीनों द्रव्य ऐसे हैं कि सर्वत्र अखंड रूप में व्यापक हैं। आकाश है वह सर्वत्र एक ही है। धर्माधर्म भी सर्वत्र एक-एक ही हैं। परन्तु जीव, पुद्गल, काल-ये तीन द्रव्य अनेक उत्तर भेद रखनेवाले हैं। आकाशादि की तरह सर्वत्र एक ही जीव नहीं है। भिन्न-भिन्न शरीरों में 1. 'नाभाव उपलब्धेः' यह ब्रह्मसूत्र के द्वितीयाध्याय में है। वे सर्व उत्पत्ति का एक ब्रह्म को कारण मानते हैं, यह शांकर सिद्धान्त प्रसिद्ध ही है। 2. दोनों विशेषणों में से बौद्ध एक भी नहीं मानते और वेदान्ती एक मानते हैं किन्तु हम दोनों मानते हैं। 3. जो फल अवस्थित विशेषण का है वह अगुरुलघु गुण द्वारा पूरा हो सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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