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________________ द्वितीय अधिकार :: 99 पर केवल चिन्तवन करते ही काम शान्ति हो जाती है । यह रीति सोलहवें स्वर्गपर्यन्त है। आगे इस बात की भी वासना नहीं है, इसीलिए वे नीचे के देवों से असंख्यगुणे सुखी रहते हैं । अप्राप्त वस्तु की इच्छा न रहने का नाम सुख है । जो अप्राप्त वस्तु की इच्छा होने पर उसे प्राप्त करने का क्लेश उठाकर पीछे से अपने को सुखी मानते हैं उनसे वे ही वास्तविक सुखी मानने चाहिए कि जिन्हें इच्छा ही न हो, इसीलिए कामवासना न रखनेवाले ऊपर के देवों को कामवासना युक्त नीचे के देवों से अधिक सुखी माना गया है। सहज ब्रह्मचारी से अधिक सुखी कौन हो सकता है ? भवनवासी देवों के निवास स्थान घर्माया: प्रथमे भागे द्वितीयेऽपि च कानिचित् । भवनानि प्रसिद्धानि वसन्त्येतेषु भावनाः ॥ 222 ॥ अर्थ- - प्रथम नरक की भूमि के तीन भाग हैं। पहले भाग को खरभाग कहते हैं, दूसरे को पंकभाग कहते हैं और तीसरे को अब्बहुल भाग कहते हैं । इनमें से दूसरे भाग में भवनवासियों के दश भेदों में से एक असुरकुमार नामवाले देवों के निवास हैं। शेष नव भेदों का रहना प्रथम खरभाग के भीतर है । इन्हीं दो भागों में इन सभी भवनवासियों के भवन बने हुए हैं। व्यन्तर देवों के निवास स्थान रत्नप्रभाभुवो मध्ये तथोपरितलेषु च । विविधेष्वन्तरेष्वत्र व्यन्तरा निवसन्ति ते ॥ 223 ॥ अर्थ- रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक के दूसरे भाग में राक्षस व्यन्तरों के निवासस्थान हैं और प्रथम खर भाग में शेष सात प्रकार के व्यन्तरों के निवास स्थान हैं। इन स्थानों के अतिरिक्त द्वीपों में भी चाहे जहाँ व्यन्तरों के स्थान होते हैं । कोई अकृत्रिम पर्वत, गुफा, समुद्र प्रान्तादिकों में रहते हैं और कोई शून्यगृह, वृक्षकोटर, चौपथ रास्ता इत्यादि स्थानों में भी रहते हैं; इसीलिए इन्हें व्यन्तर कहते हैं । इनकी पिशाचादि संज्ञा कर्मोदयवश तथा रूढ़िवश मानी जाती है। ज्योतिष्क देवों के निवास-स्थान Jain Educationa International उपरिष्टान्महीभागात् पटलेषु नभोंऽगणे । तिर्यग्लोकं समाच्छाद्य ज्योतिष्का निवसन्ति ते ॥ 224 ॥ अर्थ - भूमि से ऊपर जहाँ तक मध्यलोक है उस सीमा के भीतर आकाशपटलों में ज्योतिष्क देव । इनकी प्रदक्षिणा के तथा रहने के आकाशपटल इस प्रकार हैं रहते इस भूमितल से ऊपर सात सौ नव्बे योजन तक तो किसी जाति के भी ज्योतिष्क देव नहीं रहते। सात सौ नव्बे से उनका रहना शुरू होता है । उसमें नौ सौ योजन तक एक सौ दश योजन की मोटाई में नीचे वाले भाग में समझे जाते हैं। इससे दश योजन ऊपर जाने पर आठ सौ योजन ऊँचे सूर्य विमान फिरते हैं । सूर्य से अस्सी योजन ऊपर चलकर चन्द्र के विमान रहते हैं । चन्द्र से तीन योजन ऊपर जाने For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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