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________________ 96 :: तत्त्वार्थसार भोगभूमियों का संक्षिप्त वर्णन : जहाँ पर वाणिज्य तथा कृषि आदि कर्म न किये जाते हों, राजाप्रजा की परस्पर कल्पना न हो, मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति न चलती हो उस क्षेत्र को भोगभूमि कहते हैं। भरत तथा ऐरावत क्षेत्रों में अवसर्पिणी (गिरते हुए काल के चक्र) में प्रथम ही तीन काल तक भोगभूमि रहती है, परन्तु फिर तीन कालों में कर्मभूमि हो जाती है। ऐसा ही परिवर्तन उत्सर्पिणी (चढ़ते कालचक्र) में भी रहता है। इन दोनों क्षेत्र को कर्मभूमि की मुख्यता मानकर कर्मभूमियों में गिनाया है। यद्यपि कर्मभूमियों और भोगभूमियों के लिए तीन-तीन ही काल नियत हैं, परन्तु मोक्षमार्ग के प्रादुर्भाव का कारण होने से कर्मभूमि जहाँ थोड़ी-सी भी हो वहाँ के क्षेत्र को कर्मभूमि में ही गिनना उचित है। अधिकांश होने पर भी निकृष्ट वस्तु की उतनी प्रसिद्धि नहीं होती जितनी कि थोड़ा प्रमाण होने पर भी उत्कृष्ट वस्तु की प्रसिद्धि होती है। भरतैरावत को भोगभूमियों में न गिनने का यही कारण है। सात क्षेत्रों में से बाकी पाँच रहे, परन्तु विदेह में बत्तीस कर्मभूमि जिस प्रकार हैं उसी प्रकार शाश्वत रहनेवाली दो भोगभूमि भी हैं। मेरु के पूर्व-पश्चिम भागों में कर्मभूमि हैं और दक्षिणोत्तर भागों में भोगभूमि हैं। दक्षिण भोगभूमि को देवकुरु व उत्तर भोगभूमि को उत्तरकुरु कहते हैं। ये दो उत्कृष्ट भोगभूमि हैं। दूसरे, हैमवत क्षेत्र में तथा हैरण्यवत छठे क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि हैं। तीसरे हरि, पाँचवें रम्यक-इन दो क्षेत्रों में मध्यम भोगभूमियाँ हैं। जघन्य भोगभूमियों में आयु एक पल्यप्रमाण, मध्यमों में दो पल्य तथा उत्कृष्टों में तीन पल्य प्रमाण रहती है। भोगभूमियों में लिखने योग्य जघन्य आयु नहीं मिलती। इस प्रकार जम्बूद्वीप की छह भोगभूमि हुईं। धातकीखंड तथा पुष्कर की बारह-बारह भोगभूमियाँ मिलाने से सब शाश्वत भोगभूमि तीस होती हैं। यह अढ़ाई द्वीप की व्यवस्था है। अढ़ाई द्वीप के आगे सब भोगभूमियाँ ही हैं, परन्तु उन्हें कुभोगभूमि कहते हैं। वहाँ केवल तिर्यंच ही उपजते हैं।अन्तरद्वीप, जिन्हें म्लेच्छों के स्थान बताये हैं वे भी सब कुभोगभूमियाँ ही हैं। देवों के भेद-प्रभेद भावनव्यन्तरज्योतिर्वैमानिकविभेदतः। देवाश्चतुर्णिकायाः स्युर्नामकर्म विशेषतः ॥ 213 ॥ दशधा भावना देवा अष्टधा व्यन्तराः स्मृताः। ज्योतिष्काः पञ्चधा ज्ञेयाः सर्वे वैमानिका द्विधा॥ 214॥ अर्थ-देव चार प्रकार के हैं। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। भवनवासी देवों के उत्तर भेद दश हैं। व्यन्तरों के आठ भेद हैं। ज्योतिष्कों के पाँच भेद हैं। वैमानिकों के दो भेद हैं। ये सब भेद एक-एक विशेष नामकर्म के उदय से प्राप्त होते हैं। देवगति यह सामान्य एक गतिकर्म है। इसके उदय से वे देव कहलाते हैं। भवनवासी आदि देवगति कर्म के उत्तर भेद हैं। इन कर्मों के उदय से भवनवासी आदि विशेष अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं। 1. देवगतिनाम्नो मूलस्य उत्तरोत्तरप्रकृतिभेदस्योदयाद्विशेषसंज्ञा भवन्ति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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