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________________ द्वितीय अधिकार : : 55 परिग्रहसंज्ञा - अन्तरंग में लोभकषाय की उदीरणा होने से तथा बहिरंग में उपकरणों के देखने और परिग्रह की ओर उपयोग जाने तथा मूर्च्छाभाव-ममताभाव के होने से जो परिग्रह की इच्छा होती है उसे परिग्रहसंज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा दशम गुणस्थान तक होती है। यहाँ सप्तम आदि गुणस्थानों में जो भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा बतलाई गयी हैं वे अन्तरंग में उन-उन कर्मों का उदय विद्यमान रहने से बतलाई गयी हैं, कार्यरूप में उनकी परिणति नहीं होती । चौदह मार्गणाएँ गत्यक्ष- काय - -योगेषु वेद क्रोधादिवित्तिषु । वृत्त - दर्शन - लेश्यासु भव्य - सम्यक्त्व - संज्ञिषु । आहारके च जीवानां मार्गणाः स्युश्चतुर्दश ॥ 37 ॥ (षट्पदी) अर्थ- 1. गति, 2. इन्द्रिय, 3. काय, 4. योग, 5. वेद, 6. क्रोधादि कषाय, 7. ज्ञान, 8. संयम, 9. दर्शनोपयोग, 10. लेश्या, 11. भव्यत्व, 12. सम्यक्त्व, 13. संज्ञित्व और 14. आहारकत्व ये चौदह मार्गणाएँ जीवों के रहने के आश्रय हैं, अर्थात् इन प्रकारों में संसार के सभी जीव रहते हुए दिख पड़ते हैं। गति (प्रथम मार्गणा ) - गतिर्भवति जीवानां गतिकर्म विपाकजा । श्वभ्र- तिर्यग्नरामर्त्यगतिभेदाच्चतुर्विधा ॥38॥ अर्थ - जीवों की गति, गतिनाम कर्म के उदय से होती है। गति के नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव ये चार भेद हैं। देवादि चारों भेदों के जो कारण हैं वे ही गतिकर्म के उत्तर चार भेद हैं। देव, मनुष्य व नारक इन तीन प्रकार के जीवों के अतिरिक्त संसारवर्ती सभी जीवों को तिर्यंच कहते हैं ऐसा आगे कहेंगे। देव व नारकियों का वर्णन भी आगे किया जाएगा। इन्द्रिय (दूसरी मार्गणा ) - इन्द्रियं लिंगमिन्द्रस्य तच्च पञ्चविधं भवेत् । प्रत्येकं तद् द्विधा द्रव्य-भावेन्द्रियविकल्पतः ॥39॥ अर्थ- 'इन्द्र' शब्द का अर्थ 'परमैश्वर्ययुक्त'' होता है । सभी आत्मा परमैश्वर्ययुक्त हैं, इसलिए इन्द्र नाम आत्मा' का भी माना गया है । इन्द्र अर्थात् आत्मा का जो चिह्न हो वह इन्द्रिय' है, अथवा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने का जो साधन हो वह भी इन्द्रिय हो सकता है । इन्द्रियों की प्रवृत्ति देखने से उनके प्रेरक आत्मा का अस्तित्व' मानना पड़ता है । प्रत्येक इन्द्रिय में द्रव्येन्द्रिय व भावेन्द्रिय ये दो-दो भेद हो सकते हैं। ये सभी इन्द्रियाँ पाँच हैं । Jain Educationa International 1. इदि परमैश्वर्ये । 'इन्द्रिय' या 'इन्द्र' शब्द परमैश्वर्य सूचित करनेवाले 'इदि' धातु से बनता है। 2. इन्दतीति इन्द्र आत्मा । - सर्वा. सि., वा. 185 3. इन्द्रस्य लिंगमिन्द्रियम् । 'इन्द्रलिंगमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रियम् ।' यह पाणिनी आदि वैयाकरणों का वचन है। 4. तत्प्रयोक्तुरस्तित्वं गमयति । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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