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________________ 52 :: तत्त्वार्थसार सूक्ष्म की अपेक्षा छह युगल तथा सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक को अपेक्षा एक युगल, इन सात युगलों के चौदह भेदों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के भेद से त्रसों के पाँच भेद मिलाने से उन्नीस स्थान होते हैं। इन उन्नीस स्थानों के पर्याप्तक, निर्वृत्त्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा तीन-तीन भेद होने से कुल 57 भेद होते हैं। कहीं पर 98 भेद भी बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, नित्यनिगोद और इतरनिगोद के बादर-सूक्ष्म की अपेक्षा छह युगल और सप्रतिष्ठित प्रत्येक तथा अप्रतिष्ठित प्रत्येक इन सात युगलों के चौदह भेद पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यर्याप्तक के भेद से तीन-तीन प्रकार के होते हैं, इसलिए एकेन्द्रियों के 42 भेद होते हैं। उनमें विकलत्रय के पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक तथा लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा नौ भेद मिलाने से 51 भेद होते हैं। इनमें कर्मभूमिज' पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के 30 और भोगभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के 4, मनुष्यों के 9, देवों' के 2 और नारकियों के 2 भेद, सब मिलाने से कुल 98 जीवसमास होते हैं। छह पर्याप्तियाँ एवं उनके स्वामी आहार-देह-करण-प्राणापान-विभेदतः। वचो-मनो-विभेदाच्च सन्ति पर्याप्तयो हि षट् ॥32॥ एकाक्षेषु चतस्त्रः स्युः पूर्वाः शेषेषु पंच ताः। सर्वा अपि भवन्त्येताः संज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु तत्॥33॥ अर्थ-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के भेद से पर्याप्तियाँ छह हैं। इनमें एकेन्द्रियों के प्रारम्भ की चार, द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रियों तक प्रारम्भ की पाँच और संज्ञी पंचेन्द्रियों के सभी पर्याप्तियाँ होती हैं। भावार्थ-आहारादि पर्याप्तियों के लक्षण इस प्रकार हैं : ___1. आहारपर्याप्ति-विग्रहगति को पूर्ण कर जीव नवीन शरीर की रचना में कारणभूत जिस नोकर्मवर्गणा को ग्रहण करता है उसे खल-रसभागरूप परिणमाने के लिए जीव की शक्ति के पूर्ण हो जाने को आहारपर्याप्ति कहते हैं। 1. कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंच जलचर, स्थलचर और नभचर के भेद से तीन प्रकार के हैं। इनके संज्ञी और असंज्ञी दो भेद होते हैं। इस तरह छह भेद हुए। ये छह भेद गर्भज तथा सम्मूर्च्छन के भेद से दो प्रकार के होते हैं। गर्भज जीवों के पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक के भेद से दो भेद होते हैं तथा सम्मूर्च्छन जीवों के पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक के भेद से तीन भेद होते हैं। इस तरह गर्भजों के बारह और सम्मूछेनों के अठारह दोनों मिलाकर कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के 30 भेद होते हैं। 2. भोगभूमिज तिर्यंचों के स्थलचर और नभचर के भेद से दो भेद होते हैं। इनके पर्याप्तक और निवृत्यपर्याप्तक की अपेक्षा चार भेद होते हैं। शाश्वत भोगभूमियों में जलचर जीव नहीं होते हैं। 3. आर्यखंड और म्लेच्छखंड के भेद से कर्मभृमिज मनुष्य के दो भेद हैं। इन में आर्यखंडज मनुष्य के पर्याप्तक, निर्वृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा तीन भेद तथा म्लेच्छखंडज मनुष्य के पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक के दो इस तरह पाँच भेद होते हैं। भोगभूमिज और कुभोगभूमिज मनुष्यों के पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक की अपेक्षा दो-दो भेद इस तरह चार भेद मिलाने से मनुष्यों के नौ भेद होते हैं। 4-5. देव और नारकियों के पर्याप्तक और निर्वृत्यपर्याप्तक की अपेक्षा दो-दो भेद होते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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