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________________ (५८) सजनावे, ज्ञानलक्ति जहुमान न्यावे, विन्ग्य सक्ष्मी सूरिपावेत ॥ अथ सिध्धचक्रस्तुति ॥ । पहले पह पीयें अरिहंत, जीने सिध्यन्पो न्यवंत, त्रीजाधारन संतायोथे नभोपीवाय तंत, नभो लोग्ने सव्वसाहुमहंत, पांयमे पह विषसंत ॥दर्शन छन्पो भतिवंत, सातभे पहन मोनाए। जनंत, ग्नाहमे चारित्र हुतानंभो तवस्सनवभे सोइंत, श्री सिष्ययक्रनुं ध्यान घरंत, पातङनो होने अंत ॥शा डेशरसं नसा यें घसीनें, उस्तूरि माहे लेसीनें, घन घनसार हवीनें ॥गंगोह शुंन्ह वए। उरीनें, श्री सिध्धयनी पूल स्थीनें, सुरलि दुसुमपरयिों मुंही नगरनो धूप उरीनें, अभधेनु घृतहीपलरीदें, निर्भस लावच री लेंगा अनुभव नवपध्ध्यान घरीनें, रोगाहिङ दुःज दूर हुरीलें मु तिचधू परएशीनें ॥ाशा जाशीने वसी चैत्र रसास, बीन्वस पक्षे जो सि सुविशाल, नव जांजिस सोन्याल ।। रोग शोगनो जेतपाल, सा ढाथार वरष तसन्यास, बसी कवे तिहां लाताने सेवेलवियर्धन भास, ते सहे लोग सहा जसरास, निभ भयएगां श्रीपाल ।। छंडी जस गो खास पंपाल, नित्य नित्य खाराघोभए। डास, श्रीसिध्ययक्रशुएामास ।आगग्गामिनी संप हस डाय, पाले पण नेबीर उभडाय, - हीयडे हार सुहाय ॥ कुंडुभ संध्नतिसङ स्याय, पेहेरी पीत परोसी जना य, सीमायें समाय ॥ जाती लाती यसरी भाय, जेनर सेवे सिघ्ययक राय, द्यो तेहुने सुसहाय । श्रीविग्यप्रलसूरि तपगच्छरा य, प्रेमविन्य शुरे सेवा पाय, अंतिविन्य गुएराणायामाछति ॥ आ ॥ जय महावीरन्नि स्तुति ॥ ।। उनङसमशरीरं,प्राप्त संसारतीरं ॥भतघनसभीरं, क्रोष हावाग्निनीरं शान्सधिनखगनीरं, हललू सारसीशासुरगिरिसम Ja Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003689
Book TitleJain Kavyaprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages504
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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