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________________ (१८११ ) ॥ जय श्रीधर्मन्नि स्तवन ॥ ॥ भुजने भरलडे । जे देशी ॥ श्रीधर्मनिांध घ्यासन्लाघर मतएगो हाता ॥ सविनंतु तो रजवासन्ना धर्मतयो यातान्सज नीय समाएगी चाएगीन्गाघानेहु निसुएो लविप्राएणी लाघनाशानेह ना यित्तनोभेसन्नयन्नाघनान्मिउनसेंन्सथायकााघनानिर्भसता तेहन धर्म लाघनाऽलुषार्थ भेय्यानो भर्मन्ाापनाशानि धर्मतो सहन् सलावलाघनातोहि तुझ निमित्त प्रलावलाघनावनराल सन शक्तिन्लाघिणा पए। ऋतुरानें होर्घ व्यक्ति काघिणा आम्भलाउरेहम स विद्वासाधनासौरलता सजभीवासन्लाघिणाते हिनडर उरगी नेयन्ााषणार्धम धर्माय तुं होयलाघिणा नाते भारे धर्मनाराणी लाघनातुन पर सेवे जडलागीपनाउ मानविन्य जीवाचला घनानि अनुलवज्ञान पसायन्त्रापिणाचा परिण ॥ अथ श्रीशांतिग्निस्तवन ॥ ॥ घरे जावोल भांजो भोरीजो।जेहेशी ॥ श्रीशांतिनिनेसर साहिजा, तुळ नाडे ङिभ छूटाशे ॥ में सीधी डेडन ताहुरी, तेहु प्रसन्न - यये भूाशे । श्रीणाशा तूं वीतराणपयुं घजवी, लोसा न्नने लूसावे नगीने डीघी प्रतिगन्या, तेहुथी उही हुए। डोसावे । श्रीणाशा ओघ नेडेडे मत पडों, डेडेंपड्यां जाएोवान्गानीराणी पण तु जेथीयो, लस्तें झरीभेंसातरान्गाश्रीगागमनमांहि जाएगी वासिग्जो, हवे डिम निसर चाहेवायाान्नेलेघ्रहित भुशुं मिले, तो पलम्भांहि छूटाय ॥ श्रीगाच ज्जने आया म्भिछूटशी, डीघा दिए। म्हेएरा पाला तोशुं हुंहवाह सेर्धरह्या, उहे भानउरो जुसीयास॥श्रणाचा ॥१॥ ॥ जय श्री कुंथुनिन स्तवन ॥ ॥ योगीसर येसा ॥भेदेशी॥ डुंयुनिनेसरन्नएानेरे, मुलभ Ja Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003689
Book TitleJain Kavyaprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages504
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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