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________________ ( १४० ) रामशि रथए। लगा लंडार राडीत्तमविलय जुईनो शिष्य, रत्नविन्य चंहे निशहिसचा र्धति॥ ॥ ग्जथ गौतमाष्टङ प्रारंभः ॥ ॥ राग पलाती ॥ भात पृथ्वीसुत प्रातपीठी नमो, गएाघर गौत मनामयेलें ॥ महु समे मेमने ध्यातां सहा, यढती उसा होय वंशचे सेभाणाशावसुभूति नंदन विश्वग्नबंधन, दुरित निघ्ननाभन्नु जलेह जुड़ें डरी लविन्न ने लने, पूर्णा पोतें सही लाभ्यते हनुंगाभा आशासुरम िनेह चिंतामणि सुश्तई, अमित पूरए। अम घेनु ॥तेहग नभनुं ध्यान हृध्यें घरो, नेहथडी जघिउ नहीं माहात्म्य डेनुं ॥ भागाउ प्रएाव जाहें घरी, भाया जीनें दूरी, स्वभुजें गौतभनाभ घ्याये ॥ झेड भनाभना सल वेगें रेसे, विधन वैरी सवे दूर न्नये ॥मानानाज्ञान जसने न्ग्ससम्स सुजसंपा, गौतमनाभथी सिद्धि पामेानिजंड थंड प्रताप होय नवनिमां, सुरनर नेहनें शीश नाभेाभागाचादुष्ट दूरेंटले स्वन्न भेलो भले, आघि डीपाधिने व्याघिनासेलूतनां मे तनांन्नेर लांने वली, गौतमनाभ न्पतां डील्लासें ॥भागाद्वातीर्थम ष्टापट्टे आप सन्धेन्र्छ, पन्नरसेंत्र एाने हीज्ज हीधी ॥ जकुम पारएणेतापस डारणें, क्षीरसज्धें डरी अजुट डीधी ॥ भागाभावश्स पथ्यास लगेंगृहवासें वस्था, वरस वली त्रीश डरी वीरसेवा ॥जारवरसांगे डेवस लोणच्युं, लस्तिनेहनी मेरे नित्य देवा ॥ भाणायामहियस गीतमा गोत्र महिमा निधि, गुएानिधि रिडिने सिद्धि हार्धमणियन्सनाभथी अधिऽसीसा सहे, सुन्स सौलाग्य होलत सवार्धभाणा जाऐति ।। ग्नथ निम्श्यय व्यवहार गर्लित श्री शांतिग्नि स्तवन ॥ ॥शांति निएरोसर डेसर, ग्जर्चित नग घगीरे ॥ ञिणासेवाडीनें साहिज, नित्य नित्यतुभ तशी रेशा निगा तुञ्ञविए। दूले हेब, न डोर्घ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Educationa International
SR No.003689
Book TitleJain Kavyaprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages504
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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