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॥ अथ गहूंली सत्तावनमी ॥ ॥ नदी युमनाके तीर, उडे दोय पंखीयां ॥ ए देश ॥ ॥ ॥ चंपानयरी उद्यानमां, गणधर यवीया ॥ नामे सोहम स्वामी, जविकमन जाविया । विषय प्रमाद कषाय, हास्यादिक तजी ॥ रमता यतमराम के, निजपरीपति जजी ॥ १ ॥ नीरागी जगवान, करे गुण देशना ॥ उपकारी समान के, तारे जविजना ॥ सु
वा जिनवर वाण, तिहां याव्या सह ॥ नर नारी ना थोक के, हर्ष मनें बहु ॥ २ ॥ वसन आभूषण व्रत, तथा अंगें धरे ॥ कोएिक जूपति नार, हवे गहूं ली करे || समिति गुप्ति सहियरनी, सायें यावती ॥ आत्म असंख्य प्रदेश, रकेबी लावती ॥३॥ श्रद्धाकुंकु
घोली, स्वस्तिक करे जावथी । यतम पीठनी उपर, जिनगुण गावती ॥ विनयवती बहुमानथी, इम गहूं ली कर, अनुजवनां करि लुटणां घ्याणा तिलक घरे ॥ ४ ॥ द्रव्यजावथी एसी परें, जे गहूंली करे | सम कितवंती श्राविका, जब सायर तरे ॥ मणि उद्योत गुरुराजना, गुण सखी मन घरो ॥ पामी मनुज व तार के, शंका नवि करो || ५ || इति ॥ ५७ ॥
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