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________________ (१२४) पाप वचन नवि बोले जी ॥ केसर चंदनें जिन सवि पूजे, जवजय बंधन खोले जी ॥ नाटक करीने वाजि त्र वजाडे, नर नारीने टोलें जी ॥ गुण गावे जिनवर ना इस विध, तेहने कोइ न तोले जी ॥ २ ॥ श्रहम त करीब पोसह, बेसी पौषध साले जी ॥ राग द्वेष मद मत्सर बांकी, कूड कपट मन टाले जी ॥ कल्पसूत्रनी पूजा करीने, निशिदिन धर्मे माले जी ॥ एहवी करणी करतां श्रावक, नरक निगोदिक टाले जी ॥ ३ ॥ पडिक्कमएं करियें शुद्ध जावें, दान संव त्सरी दीजें जी ॥ समकेतधारी जे जिनशासन, रात्रि, दिवस समरीजें जी ॥ पारणवेला पडिलाजीने, मनो वांछित महोत्सव कीजें जी ॥ चित्त चोखे पजूसण क. रशे, मन मान्यां फल लेशे जी ॥ ४ ॥ इति ॥ १०८ ॥ ॥ अथ गहूंली एकशो ने नवमी ॥ वीरजीने बने मृत रस करे रे ॥ ए देशी ॥ ॥ जक्ति करी जें रे नवि श्रुतधर तणी रे, जेहनी सा ख नरे जियदेव || संदेह पूबीजें नित मेव ॥ जति ॥ १ ॥ तुंगी या नामें रे नगरी यति जली रे, जिहां श्रावक बारे व्रतधार ॥ जहनां मोकलां घर तणां बार ॥ ति० ॥ २ ॥ गुणना रागी रे जाण नवत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003688
Book TitleGahuli Sangrahanama Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1908
Total Pages146
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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