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(२५) वास ॥ उनको सुजस बखाने ज्ञाता, अंतरदृष्टि प्रकासी ॥ चेत० ॥ एए ॥ इति ॥
पद पाँचमुं ॥ राग सारंग ॥ जीउ लाग रह्यो पर जावमें, सहज वजाव लखे नहिं अपनो, परियो मोह जंजालमें || जीज० ॥ १ ॥ वंबे मोक्ष करे नहीं करणी, मालत ममता वामें ॥ चाहे अंध जि जलनिधि तरवा, बेठो काणी नामें ॥ जीउ० ॥२॥ रति पिशाच । परवश रहेतो, खिनदु न समस्यो में || श्राप बचा सकत नहीं मूरख, घोर वि षयके घाटमें || जीज० ॥ ३ ॥ पूरव पुण्य धन सब ही ग्रसतु हे, रहत न मूल बढाउमें ॥ तामें तुऊ कैसें बनि यावे, नय व्यवहारके दाउमें || जीउ० ॥ ॥ ४ ॥ जस कड़े छ मेरो मन लीनो, श्रीजिनवर के पामें ॥ याही कल्याण सिद्धिको कारण, जीज वेधक रस घाउ में || जीउ० ॥ ५ ॥ इति ॥
पद बटुं ॥ राग सामेरी ॥ पीउजी मोहें दरिस दीजीयेंरे, तेरे दरिस की में प्यासी, तुं कहां जयो रे उदासी ॥ पी० ॥ १ ॥ पीउ पीठ जपते जर हृदय टुक, नयनो नंदकी बाजी रे ॥ तब देख्या पिउ प्रेमसें पुनी, संकुचि रहि हुं लाजी रे ॥ पी० ॥२॥ रसिक न राख्यो
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