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(४) तां, यवन छीपने तीरें रे ॥ कि० ॥ उतस्यां सहु ज न सायर कं, आव्या नरपति नीरें रे ॥ किम् ॥ १२ ॥ महेश्वरदत्ते नेटणुं मेल्युं राज, नृप श्रागल अनिनवे रे ॥ कि० ॥ रीजयो महिपति दीधो दि लासो राज, करो व्यवसाय घणेरो रे ॥ कि० ॥१३॥ नृप आदेशे महेश तिवारें, पुरमा वेच्यां वसाणां रे ॥ कि० ॥ कीधा गांठे दाम पुणा राज, परखी परखः नाणां रे ॥ कि० ॥ १४॥ निगम्या केताएक दिवस तीहां राज, प्रवहण वली सज कीधां रे ॥ कि० ॥ खेड्यां प्रवहण महोदधिमांहे, निजपुर साहामां सीधां रे ॥ कि ॥ १५ ॥ जर दरिये जव प्रवहण आव्यां राज, पूरे पवनें प्रेयां रे ॥ कि० ॥ देवग तेथी पोत सविहु, गिरि कुंडलमां घेख्यां रे ॥ कि० ॥ १६ ॥ प्रवहण पर्वत परें स्थिर रहीयां, फरहरे पं चरंग नेजा रे ॥ कि ॥ ढाल चोवीशमी मोहनें नांखी, सहु हुँसे निसूणी सहेजा रे ॥ कि० ॥१७॥
॥दोहा॥ __ वहाण रंधाई रह्यां, न होय वायु प्रसंग ॥ ना विक सवि जांखा थया, बीप्या सयल सलंग ॥१॥ प्रवहण जन आतुर हुआ, उद्यम न चढ्यो हाथ ॥
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