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________________ ( १५८ ) ॥ दोहा ॥ ए वाडव माहरो खरो, नेही इस संसार ॥ धन पण कां नथी मागतो, कहे बे हित उपगार ॥ १ ॥ एणे मुऊ साधुं कयुं हुं तो दी जंतुं दान ॥ पण धन विहूणा नर हुवे, नीरस तरण समान ॥ २ ॥ धनदत्त ब्राह्मण वचनथी, परिहयुं देवं दान | लोन दशा पसरी खरी, नीचसंगति निदान ॥ ३ ॥ संगति उ त्तम कीजीयें, तो यश्ये वरवीर ॥ परिखा जल गंगा गयुं, तो थयुं गंगानीर ॥ ४ ॥ जो जो संगति नी चथी, यापद असी मेल ॥ जो खलसंगति च्यादरे, तो निष्फल नागरवेल ॥ ५ ॥ धनदत्त धन ढगला करी, राख्या मंदिरमांहि ॥ नाकारो शीख्यो फरी, विप्र वचनथी त्यांही ॥ ६ ॥ ॥ ढाल त्रेपनमी ॥ सासू पूढे वहु वात ॥ माला किहां वे रे, ए देशी || मूर्ख मित्रनी वातो रे, कहो कुण माने रे ॥ एक अज्ञानिनी टोली रे, करे कुण काने रे ॥ ए झांकी ॥ धनदत्त ब्राह्मणथी जरमाणो, वाहला मारा नवि मनमें शरमाणो ॥ लाज तपी तेणे वात न राखी, यशनो रत्न गमाणो रे ॥ क० ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003683
Book TitleNarmada Sundarino Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages198
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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