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________________ (१४७) ढुंती उरडे रे, उरडाहूंती गेह ॥ इयत्तावछिन्न श्र जुश्रालडूं, पण दीपक तेहनो तेह ॥सुं॥२॥पूरा ए सहेजें गले रे, एतो पुजल धर्म ॥ पण जो ह पीए हाथथी, ते तो बांधे निकाचित कर्म रे ॥ सुं० ॥३॥ जोगद बिहु इंजीतणा, एम नांखे जि नराय ॥ अव्ये जिया, नावेंडिया, वली अव्यथी नेद बे थाय रे ॥ सुं ॥ ४॥ जावेंछिया बे नेद थी, लब्धि तथा उपयोग ॥ लब्धि कहीये तेहने, जे होये याचरण वियोग रे ॥ सुं० ॥ ५ ॥ उपयो गथी जावेंडिया रे, एगंदिया दिक जीव ॥ पंच विषय तज्ञतपणे, ते अनुजवे अतुल आ जीव रे ॥सुं॥६॥ जेम कन्या नूषण सजी रे, तुरग प्रति आरूढ ॥ वदन जरी तांबूलथी, सा संचरी होय अमूढ ॥ सुं० ॥ ७॥ श्रावे जिहां कूपक जस्यो रे, पारदनो द्युतिवंत ॥ तस उपकंठे ऊनी रहे, मुख मधुरो शब्द कहंत ॥ सुं० ॥ ७॥ शब्द सुणी क न्या जणी रे, अहवाने रसराय ॥ दोडे उपांग विना तिहां, एम उपयोग इंडिय कहाय रे ॥ सुं० ॥ ए॥ वली बकुलादिक वृदने रे, सिंचे गंगातोय ॥ पण मदिरा सिच्या विना, तस कुसुम कुरंब न होय ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003683
Book TitleNarmada Sundarino Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year
Total Pages198
LanguageGujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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