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(१७) ॥ ढाल बीजी ॥ आबू मन लागुं ॥ ए देशी॥ ॥ सारथपति पूजे हसी, एकलमी कुंण थांहीं रे ॥ गोरी कहे साचुं ॥ उत्तम कुल संनव प्रत्ये, कहे आकृति तुज प्राही रे ॥ गो० ॥ १ ॥ मूकी इंहां किणे अपह री, के रीशाणी तुं आप रे ॥ गो० ॥ के कोइ इष्ट वियोगथी, कीधो तें वन व्याप रे ॥ गो॥ २॥ पु त्र प्रसव ताहरे हां, दीसे थयो गुणगेह रे || गो॥ वनमांहिं बीहती नथी, कहे सुंदरी ससनेह रे॥ गो०॥ ॥३॥धनवंतो व्यवहारीयो, नामें हुं बलसार रे ॥ गो० ॥ सागर तिलक पुरें वसुं, पर ही व्यापार रे ॥ गो० ॥ ४ ॥ नवँ कह्यं जगदीश्वरे, मेलवतां तुं श्राज रे॥ गो० ॥ मुज मेरे श्रावो वही, मूकी मननी लाज रे ॥ गो ॥५॥ वचन सुणी सा चिंतवे, ए न र चपल पतंग रे ॥ गो० ॥मातो धन यौवन मदें, करशे शील विजंग रे॥गो ॥ ६॥ कूमों उत्तर वा सतां, रहेशे शील अखंग रे ॥ गो० ॥ईम धारी बो ली त्रिया, सुण गुणरयण करंग रे ॥ गो० ॥ ७ ॥ तनुजा हुं चंमालनी, कलहें कोपी श्राप रे ॥.गो० ॥ थावी रही वनमां इहां, मूकी निज माय बाप रे ॥ ॥ गो० ॥ ॥ मेल मले किम ते घटे, जिम दिन
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