________________
(१७) सामी, थाशे हे सकलंक ॥ नृपतिः ॥ लोक कलंक न लागशो रे नोली, लागजो विषहर मंक ॥ नृप० ॥ ॥रए ॥ रातें सर्व जणायशे रे जोली, बाहिर न नां खे वात ॥ तब म बोली रे करती चालणां ॥ एब ऊघाडं पारकी रे सामी, एहवी नहीं मुज धात ॥ ॥ रह० ॥ २० ॥ सतकारी नू तिका रे धीती, पोहोती नुवन विचाल ॥ अहो निशि जोती रे ॥त्री जे खंमें ग्यारमी रे मीठी, कांतें कही ए ढाल । नय नव जांतें रे करती खेलणा ॥ २१॥ इति ॥ ..
॥ दोहा ॥ ॥ राक्षसनी विनता तणो, रजनीमां सजी साज ॥ आवी मलयानें कहे, कनका कपट जिहाज ॥१॥ पुत्री तुं घरमां रहे, हुँतो बाहिर जाय ॥ हणी निशा चर नारिने, श्रावीश वहेली धाय ॥२॥शिता देश बाहिर गई, कूम चरितनी कूप ॥ वस्त्र उतारें अंगी । करवा रूप विरूप॥३॥विविध रंग वरण करी रंगे आप शरीर ॥ अहे उमामी वदनमां, बलबलजी के पीर॥४॥रुममाल कंवें धरे, कर। सादे करवाल ॥ प्रत्यक्ष रूपें राक्षसी, थई खेल्ने रोशाम ॥५॥ एहवे
'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org