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( १७३) यक्ष धनंजय नवन समी, गोला कंठे गवी ॥१॥ साची वात कहांडां राज, जे वीती ने अममां॥ तिलन र जूठ कहुं नहीं मोहन, मलताना संगममां ॥ सा ची०॥ए आंकणी ॥ लोजसार चोरेंजलमांथी, काढी जार गरिही ॥ तालुं नांजी जोतां मांहे, वस्त्र सहित हुँ दीठी ॥ सा०॥॥शैल अलंब विषम कंदरमां, लेई गयो मुज बने ॥ अव्य सहित मंदिर पोतानु, दे खाम्युं बहुमानें ॥ सा०॥३॥ नेहरसें मीजी मुज जीजी, तस संगे मन मोदें। पोहोर दोय रही तिहां थी इंणे पुर, श्राव्यो काज विनोदें। सा०॥४॥पा पदिशाथी नूसाही, सांजे वमले बांध्यो ॥ पर्वत शि खर रही में जोतां, मोहन विलंबन सांध्यो ॥ सा॥ ॥ ५॥ राति समय गई पासें रमती, तिहां मली हुँ तमने ॥ागल वात सकल जाणो बो. ए वीत्यं श्रमने ॥ सा ॥६॥ श्रावो अव्य घणुं देखाउँ, श्म सुणी महाबल ऊठे ॥ कयु तातने तात कुमरशु, चा स्यो त्यां तस पूंजें ॥ सा०॥७॥ वस्तु हती जे जे हनी तेहनें, दीधी सर्व संजाली ॥ शेष अव्य ले नर पति नगरें, आव्यो पाडो चाली ॥ सा० ॥ ॥धन आपी सत्कारी कनका, आवे कुमर निवासें ॥ लखमी
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