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(११७) जलपूर परें, प्रगट परानव पाल॥हणी एह गंधर्वने, लेशुं बाल ऊलाल ॥३॥श्म कही ते हुई एकठा, हणवा उठ्या रूप॥धवल कटक गंधर्वनें, ततक्षण वींटे ऊठ ॥४॥ वज्र सार ते कर ग्रही, वेण करण रोषाल ॥ करे प्रगट शर वर्षणे, पौरुष वर्षाकाल ॥५॥ श्रण सहेता प्रति घात तस, नाग तेह वराक ॥जे म दंमा बीदता, जाये दिशोदिश काग ॥६॥नट्ट पुत्र परिचित तिहां, ऊनो एक नजीक ॥ महबलने जाणी ईसी, जणी स्वस्ति निर्जीक ॥७॥ ॥ ढाल चौदमी॥ बावा किसनपुरी ॥ ए देशी॥
॥शूर नृपति कुल नासण चंद, पदमावती दे वीना नंद ॥ मोहन स्वस्ति ग्रहो॥ाया श्हां केम कहोजी कहो || घणा दिवसनी हुती चाह, सफल हुई दीग नरनाह ॥ मो० ॥ श्रा० ॥१॥ वायनी मारी कोयल जेम ॥ संजवे तुम बागम इहां एम ॥ मो० ॥ अलगा न कस्यामीटथी लेश, धीया किम न रपति परदेश ॥ मो॥था॥परिकर साथें नहीं २ कोय, श्म क्यों थाया एकाकी होय ॥ मो॥ कारज को सोंपो महाराज, मुज लायक करीये जेम थाज॥मो॥आ॥ ३॥ इंम सुणी त्यां रीज्यो नृप
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