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(३६) वी, एतो नृपें निजबंधव कीध रे ॥ सु०॥ २६ ॥ गुं० ॥ अश्व अमूलक पालखी, एतो हरिबल च ढवा काज रे॥ सु० ॥ एतो आपे नृप हर्षे करी, एतो प्रबल वधारी लाज रे ॥ सु० ॥ २७ ॥ शु० ॥ एतो जलें आव्या तुमें नयरमें, तुम आवे वध्युं हम हेज रे ॥सु॥ नगरी अम पावन थई, एतो दिन दिन चढते ते जरे ॥सु० ॥ २७॥ शु०॥ म सनमानी बोलावियो, एतो वसंतसिरीने गेह रे ॥ सु० ॥ लब्धि कहे ढाल बातमी, एतो पुण्यें लगे एह रे ॥सु० ॥ ए॥ गु०॥
॥दोहा॥ ॥हरिबल ते निज मंदिरें, याव्यो करी आमंग ॥ वसंत सिरि हरखित थई, देखी पियुनो रंग ॥१॥ म दन वेग नृपनी सदा, सारे निशदिन सेव ॥ बांध बो ड दरबारनी, हरिबल करे ततखेव ॥ २॥ हाल दुकु म दरिबल तणो, थयो विशालामन ॥जीरण सचिव कोरें रह्या, अलगा थई अकऊ ॥३॥ हरिबल नृपर्नु एक मन, दीसंता तन दोय ॥ बाकी पूरण प्रीतडी, ज्यु नख मांसने होय ॥ ४॥ वसंतसिरि अपर स मी, पामी पुण्य संयोग ॥ दोगुंडक सुरनी परें, हरिब स नोगवे लोग ॥ ५ ॥ एक दिन बेग रंगमें, दंपति
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