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(२५१)
न्म्यो बेटो || नाम विश्वंभर देइ एहवं, वंध्या मेहं मेट्यो ॥ २७ ॥ जब जाग। तब रोवा लागी, किहां गयो माहरो पुत्र ॥ वृद्ध कालें मुऊने सुखदाता, राखे घरनां सूत्र ॥ १८ ॥ वंध्यानुं जिम सुहणुं खोटं, तिम संसार बे खोटो || एवं जाणी प्राणी चेतो, टाली मोहनो गोटो ॥ २५ ॥ ए संसार असार वखायो, जेहवो गरनो ह ॥ माननी प्रणीयें ज्युं जल कलिया, तिम बें जगमें नेदं ॥ ३० ॥ ऋषि ने रमणी आपणी तिहां लगें, जिहां लगें यांख्यो साजी ॥ यांख मीचाणे को नहीं ताहरु, इम कहे जिनवर गाजी ॥ ३१ ॥ एटलामांहे समजी लेजो, जो दुवो मोहना अर्थी । तो ए प्रमाद पांचे ढंकीने, करो सुकृत निज करथी ॥ ३२ ॥ चोथा न लासनी शोलमी ढालें, दीघो एम उपदेश ॥ लब्धि कहें जवि परखद बूजी, बृज्यो मही नरेश ॥ ३३ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ इम उपदेश ते सांगली, विनवे वे कर जोडि ॥ कहो स्वामी मुऊ बागडें, पूरव जवनी होडि ॥ १ ॥ शीकरणीयें हुं लह्यो, धीवर कुलनी जात ॥ शी कर पी नृप पद लयुं, शे लहि नृपधी ख्यात ॥ २ ॥ शी करणी मुकने मव्यो, तटिनीनाथनो नाथ ॥ सुरम
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