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(ज) उपजे विणसे तबही ॥ उलट पलट ध्रुवसत्ता राखे, या हम सुनीन कबही॥॥॥ एक अनेक अनेक एक फुनी, कुंडल कनक सुनावे॥ जलतरंग घटमाटी रविकर, अगनित तादि समावाशा है नांदी है वचन अगोचर, नय प्रमाण सत्तनंगी॥ निरपख होय खखेको विरखा, क्या देखे मत जंगी॥ ॥३॥
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