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( २६२ )
द्वेष धरत दिल मांदि रे ॥
व० ॥ ३ ॥
ससले जाय सिंहकूं पकड्यो, दूजों दीयो देखाई रे | निरख दरि ते जाण दूसरो, पड्यो कंप तिदां खाई रे ॥
व० ॥ ४ ॥
निज बाया वेताल नरम धर,
मरत बाल चित्त मांदि रे ॥ सर्प करी कोन मानत,
रज्जु
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