________________
(१७) रंचक सुखरस वश होय चेतन, अपनो मूल नसायो॥ पांच मिथ्यातधार तुं अजहूं, साच नेद नवि पायो।मू॥२॥ कनक कामिनी अरु एहथी, नेह निरंतर लायो॥ ताहुथी तुं फिरत सोरांनो, कनकबीजमानुं खायो।मू।०॥ जनम जरा मरणादिक उःखमें, काल अनंत गमायो॥ अरटघटिका जिमकदोयाको,
Jain Educationa Interati@ersonal and Private Usev@mw.jainelibrary.org