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________________ ३० आनन्द श्रावक ************************************** हुए चैत्य शब्द का अर्थ उनके बनाये हुए जिन मन्दिर या उनके - जिन - मन्दिर ऐसा मानने वाले से जब यह पूछा जाता है कि ऐसा अर्थ मानने पर आपको दुःखांत विपाक में वर्णित उन दुष्ट मलेच्छ, अनार्य, लोगों के भी जिन मन्दिर मानने पड़ेंगे। क्योंकि यह 'चैत्य' शब्द तो वहां भी आया है ऐसा मानने पर जिन मन्दिर का महत्त्व ही क्या रहेगा? इतना पूछने पर यहां तो चट वे हमारे मूर्तिपूजक बन्धु कह देंगे कि नहीं यहां चैत्य शब्द का अर्थ जिन मन्दिर - जिन-मूर्ति नहीं होकर व्यन्तर मन्दिर ही अर्थ होगा । इस तरह एक समान वर्णन में एक जगह जिन-मन्दिर व दूसरी जगह व्यन्तरायतन अर्थ कैसे हो सकता है ? - वास्तव में ऐसे वर्णनों में चैत्य शब्द का अर्थ व्यंतरायतन होता है। इसके लिये उपासकदशांग में नगरियों के साथ आये हुए नाम प्रमाण है । जैसे - पुण्णभद्दे चेइए, कोट्ठगे चेइए, गुणसिलाए चेइए आदि ऐसे वाक्यों में चैत्य शब्द का अर्थ व्यंतरायतन ही होता है, स्वयं आगमों के टीकाकार भी हमारे इस अर्थ से सहमत हो कर इनके कहे हुए अर्थ का खण्डन करते हैं, देखिये - चेइएत्ति - चितेर्लेप्यादि चयनस्य भावः कर्मवेति चैत्यं, संज्ञाशब्दत्वाद् देव बिंबं तदाश्रयत्वात् तद्गृहमपि चैत्यं तच्चेह व्यंतरायतनम् नतु भगवतामर्हतामायतनम् । इससे सिद्ध हुआ कि आदर्श श्रमणोपासकों को मूर्ति पूजव ठहराने का कथन एकान्त झूठ है और साथ ही मूर्ति पूजा आग‍ सम्मत है, ऐसे कहने वालों के इस सिद्धान्त को फेंक देने योग् निस्सार घोषित करता है। जिसके पास खरा आगम प्रमाण हो व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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