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आनन्द श्रावक
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भी जहां उल्लेख किया गया हो, जिसके चरित्र चित्रण में सूत्र के तृतीयांश पृष्ठ लग गये हों, उसमें केवल मूर्तिपूजा जैसे दैनिक कर्त्तव्य का नाम तक भी नहीं होने से ही सूत्रों को संक्षिप्त कर देने की दलील ठोक देना असंगत नहीं तो क्या है ? इस पर से तो मूर्तिपूजक बंधुओं को यह समझना चाहिये कि जिस विस्तृत कथन में ऐसी छोटी-छोटी बातों का कथन हो, और मूर्तिपूजा जैसे धार्मिक कहे जाने वाले दैनिक कर्त्तव्य के लिये बिन्दु विसर्ग तक भी नहीं, यह साफ बता रहा है कि वे आदर्श श्रावक मूर्तिपूजक नहीं थे।
(२) स्वामीजी ने हिम्मत पूर्वक यह डींग मारी है कि 'समवायांग में यह बात प्रत्यक्ष है' यह लिखना भी झूठ है, क्योंकि समवायांग में आनन्द श्रावक का वर्णन तो ठीक, पर नाम भी नहीं है, हां समवायांग में उपासकदशांग की नोंध अवश्य है, उस नोंध में यह बताया गया है कि
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'उपासकदशांग में श्रावकों के नगर, उद्यान, व्यन्तरायतन, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक, परलोक आदि का वर्णन है'
बस समवायांग में यही नोंध है और इसी को विजयानन्दजी मूर्ति पूजा का प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं ? हां यदि इसमें यह कहा गया होता कि उपासकदशांग में श्रावकों के मन्दिर मूर्ति पूजने, दर्शन करने, यात्रार्थ संघ निकालने आदि विषयक कथन है मूर्ति पूजा के लिये यह खास प्रमाण रूप मानी जा सकती थी, किन्तु जब इसकी कुछ गंध ही नहीं, फिर कैसे कहा जाय कि समवायांग में प्रत्यक्ष है ? विजयानन्दजी के उक्त उल्लेख का आधार वहां आया हुआ एक मात्र 'चैत्य' शब्द ही है। जिसका शुद्ध और प्रकरण संगत अर्थ
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