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सूर्याभ देव
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श्रमण के उपदेश से उसने धर्माराधन, तपश्चर्या, परीषह सहन, अन्तिम संलेहणा आदि क्रियाओं द्वारा संचित पाप पुंज का नाश कर पुण्य का प्रबल भंडार हस्तगत किया, क्या इस पाप पुंज संहारिणी और पुण्य उदय करने वाली करणी में कहीं मूर्ति - पूजा का भी नाम निशान है ?
(इ) सूर्याभ ने उत्पन्न होकर मूर्ति पूजा की, उसके बाद भी कभी नियमित रूप से उसने पूजा की है क्या? क्योंकि धार्मिक कृत्य तो सदैव किये जाने चाहिये, जैसे सामायिक, प्रतिक्रमण आदि । पूर्व समय के श्रावक प्रतिदिन धार्मिक कृत्य करते थे इसका वर्णन सूत्रों में पाया जाता है। इसी तरह यदि मूर्ति पूजा को भी धार्मिक क्रिया में स्थान होता तो किसी न किसी स्थान पर एक भी श्राद्धवर्य के जीवन वर्णन में उल्लेख अवश्य मिलता। इसी प्रकार मूर्ति पूजा यदि धार्मिक करणी होती तो सूर्याभ सदैव इस क्रिया को करता, खास-खास प्रसंग पर तो कुल रिवाज अथवा जीताचार ही पाला जाता है।
(ई) सूर्याभ का दृढ़ प्रतिज्ञ कुमार रूप अन्तिम भव है उसमें चारित्र धर्म की आराधना कर मुक्ति प्राप्त करने का वर्णन है, उसमें भी कहीं मूर्ति पूजा का कथन है क्या ?
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जब हमारे मूर्ति-पूजक बंधु इन बातों पर विचार करेंगे तब उन्हें भी विश्वास होगा कि मूर्ति पूजा को धर्म कहना मिथ्या है। सूर्याभ की यह करणी जीताचार की थी, धर्माचार ( आत्मोत्थान) की नहीं। वर्तमान में भी राजा महाराजा विजया दशमी को कुलदेवी, तलवार, बन्दूक, तोप, घड़ियाल, नक्कारे, निशान, हाथी, घोड़ा आदि की पूजा करते हैं, यह सभी कृत्य परंपरा से चले आते हुए रिवाज में ही सम्मिलित हैं। सम्यक्त्वी श्रावक भी
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