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[31] 本本本本本******************************** अत्याचारों को नेस्तनाबुद कर दिया। धर्म तीर्थ व्यवस्था पूर्वक चलता रहे इसके लिये साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना की। दीर्घ काल तक उस संघ का नेतृत्व समर्थ मुनियों द्वारा होता रहा, और संघ का कार्य सुचारु रूप से चलता रहा। किन्तु धीरे-धीरे संघ में मत भिन्नता होने लगी, और उस मत भिन्नता ने कदाग्रह का रूप पकड़ कर एकता की श्रृंखला को तोड़ डाला। यहां से अवनति का श्री गणेश हुआ। जब साधुओं में आपस में भिन्नता हो गई तब स्वच्छन्दता के वातावरण का उन पर भी असर हुए बिना नहीं रहा। आखिरकार किसी समर्थ पुरुष का दबाव नहीं रहने से स्वच्छन्दता युक्त शिथिलाचार बढ़ने लगा। बढ़ते बढ़ते श्रीमान् हरिभद्रसूरि के समय में तो प्रकट रूप से बाहर आ गया। उस समय शिथिलता का कितना दौर दौरा था, इसका वर्णन हम अपने शब्दों में नहीं करते हुए श्रीमान् हरिभद्रसूरि के ही शब्दों में बताते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने “संबोधप्रकरण" में बहुत कुछ लिखा है उसके थोड़े से वाक्य यहां उद्धृत किये जाते हैं। __ "आ लोको चैत्य अने मठ मां रहे छ। पूजा करवानो आरम्भ करे छ। फल फूल अने सचित पाणी नो उपयोग करावे छे। जिन मन्दिर अने शाला चणावे छ। पोतानी जात माटे देव द्रव्यनो उपयोग करेछे। तीर्थना पंड्या लोकोनी माफ अधर्म थी धननो संचय करे छ। पोताना भक्तों पर भभूति पण नाखे छे, सुविहित साधुओनी पासे पोताना भक्तों ने जवा
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