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________________ [29] ****************************************** पर्याप्त है, किन्तु जो भाई उन्हीं की पुस्तक का उत्तर और उनकी उठाई हुई कुतर्कों का खण्डन स्पष्ट देखना चाहें उन्हें कुछ धैर्य धरना होगा, क्योंकि - यह ग्रन्थ मात्र एक ही विषय का होने पर भी बहुत बड़ा हो जाने वाला है, अतएव ऐसा कार्य विलम्ब और शांति पूर्वक होना ही अच्छा है, जब तक उसका प्रकाशन नहीं हो जाय पाठक इससे ही संतोष करें। प्रस्तुत पुस्तक के विषय में जिन-जिन पूज्य मुनि महाराजाओं और श्रावक बन्धुओं ने अपनी अमूल्य सम्मति प्रदान की है उन सबका मैं हृदय से आभारी हूँ। इसके सिवाय इस हिन्दी संस्करण के प्रकाशन में आर्थिक सहायदाता अहमदनगर निवासी मान्यवर सेठ लालचन्दजी साहब का भी यहाँ पूर्ण आभार मानता हूँ कि - जिनकी उदारता से आज यह पुस्तिका प्रकाश में आई। बस इतने निवेदन मात्र को पर्याप्त समझ कर पूर्ण करता हूँ। विनीत :- लेखक - - समर्पण तीर्थंकर प्रभु द्वारा स्थापित, चतुर्विध संघ रूप तीर्थ की परम पवित्र सेवा में - मूर्ति के मोह में पड़कर स्वार्थपरता, शिथिलता और अज्ञता के कारण कई लोग हमारी साधुमार्गी समाज पर अनुचित एवं असत्य आक्षेप करके सम्यक्त्व को दूषित करने की चेष्टा करते रहते हैं, उन आक्षेपकारों से हमारी समाज की रक्षा हो और शंका जैसी सम्यक्त्व नाशिनी राक्षसी की परछाई से भी वंचित रहें, इसी भावना से यह लघु पुस्तिका भक्ति पूर्वक समर्पित करता हूँ। किंकर - रत्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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