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________________ श्री लोंकाशाह मत-समर्थन १५४ ******************************於******** वास्तव में सामायिक उदय आना ही कठिन है इसमें मन, वचन व शरीर के योगों को आरम्भादि सावध व्यापार से हटा कर निरारम्भ ऐसे सम्वर में लगाना होता है, जो कि उतने समय का चारित्र धर्म का आराधन है। गृहस्थ लोगों से आरम्भ परिग्रह आदि 'का छूटना ही अधिक कठिन है, इसलिए सामायिक का उदय में आना ही दुर्लभ है। मूर्तिपूजा में दुर्लभता कैसी! झट से स्नान किया, फूल तोड़े, केशर चन्दनादि घिस कर पूजा की। ऐसे आरम्भ जन्य कार्य से तो चित्त प्रसन्न हो हाता है और यह प्रवृत्ति भी सब को सरल व सुखद लगती है, इसमें दुर्लभता की बात ही क्या है? धर्म दया में है, हिंसा में नहीं महानुभावो! खरा धर्म तो इच्छाओं को वश कर विषय कषाय और आरम्भ के त्याग में तथा प्राणी मात्र की दया में है। इसके विपरीत निरर्थक हिंसा भव भ्रमण को बढ़ाने वाली होती है। मात्र एक दया ही संसार से पार कराने में समर्थ है, यदि शंका हो तो प्रमाण में आगम वाक्य भी देखिये - : (१) श्री आचारांग सूत्र के शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में ‘जाइ मरण मोयणाए' कह कर धर्म के लिए की गई पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा को अहित एवं अबोधी कर बताई है और प्रभु ने स्पष्ट कहा है कि - जो इस प्रकार की हिंसा से त्रिकरण त्रियोग से निवृत्त है, उसे ही मैं संयमी साधु कहता हूँ। (२) सूत्रकृतांग सूत्र अ० ११ गाथा ६ से मोक्ष मार्ग की प्ररूपणा करते हुए प्रभु फरमाते हैं कि - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003679
Book TitleLonkashah Mat Samarthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2002
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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