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श्री लोंकाशाह मत-समर्थन १५५ ***************************************
(८) सन्देह दोहावली में लिखा है कि -
गड्डरी-प्पवाहऊ जे एइ नयरंदीसइ बहुजिणएहिं जिणग्गह कारवणाइ सो धम्मो सुत्त विरुद्धो अधम्मोय। । अर्थात् - लोक में गडरिया प्रवाह से गतानुगतिक चलने वाला समूह अधिक होता है, वे जिन मन्दिरादि करवाना यह सूत्र विरुद्ध अधर्म को भी धर्म मानने वाले हैं।
(६) विवाह चूलिका के 8 वें पाहुड़े के ८ वें उद्देशे में लिखा है
कि.
जइणं भंते! जिण पडिमाणं वंदमाणे, अच्चमाणे सुयधम्मं चरित्तधम्मं लभेजा? गोयमा! णो अढे समढे। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ? गोयमा! पुढवी कायं हिंसइ, जाव तस कायं हिंसइ। । अर्थात् - श्री गौतम स्वामी प्रश्न करते है कि - अहो भगवन्! जिन प्रतिमा की वन्दना, अर्चना करने से क्या श्रुत धर्म, चारित्र धर्म की प्राप्ति होती है? उत्तर - यह अर्थ समर्थ नहीं। पुनः प्रश्न-ऐसा क्यों कहा गया? उत्तर - इसलिए कि-प्रतिमा पूजा में पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के जीवों की हिंसा होती है। । इस प्रकार विवाह चूलिका में भी मूर्तिपूजा द्वारा सूत्र चारित्र धर्म की हानि बताई गई है।
यद्यपि विवाह चूलिका से उक्त सम्वाद प्रभु महावीर और श्री गौतम स्वामी के बीच होना पाया जाता है, किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि - ग्रन्थकारों की यह एक शैली है, जो प्रश्नोत्तर में प्रसिद्ध और सर्व मान्य महान् आत्माओं को खड़ा कर देते हैं। वर्तमान
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