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श्री लोकाशाह मत-समर्थन ******************************************* ... यही उदाहरण श्री हरिभद्रसूरि ने आवश्यक वृत्ति में वन्दनाध्ययन की व्याख्या करते हुए वन्दनीय पर भी दिया है।
__ यद्यपि उक्त चौभंगी लेखक ने मूर्ति पूजा पर नहीं दी, तथापि उक्त चौभंगी पर से यह तो स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि - चतुर्थ भंग 'अर्थात् साक्षात् भाव निक्षेप युक्त प्रभु ही कार्य साधक हैं और मूर्ति पूजा तो तांबे के टुकड़े पर रुपये २२४ की छाप वाले दूसरे भंग की तरह एकदम निरर्थक है। मुमुक्षुओं को इस पर खूब मनन करना चाहिए।
(६) चौदह पूर्वधर श्रीमान् भद्रबाहु स्वामी ने व्यवहार सूत्र की चूलिका में चन्द्रगुप्त राजा के पांचवें स्वप्न के फल में भविष्य में कुगुरुओं द्वारा प्रचलित होने वाली मूर्ति पूजा की भयंकरता दिखाते हुए लिखा है कि - ___ "पंचमए दुवालस फणि संजुत्तो, कण्हे अहि दिट्ठो, तस्स फलं-दुवालसवास परिमाणो दुक्कालो भविस्सइ तत्थ कालिय-सुयप्पमुहाणि सुत्ताणि वोच्छिजिसंति, चेइयं ठवावेइ, दव्वहारिणे मुणिणो भविस्संति, लोभेण माला रोहण देवल-उवहाण-उज्जमण-जिण बिम्ब-पइट्ठावण विहिं पगासिस्संति, अविहि पंथे पडिसइ तत्थ जे केइ साहू साहूणिओ सावय-सावियाओ, विहि-मग्गे बुहिसंति तेसिं बहूणं हिलणाणं, णिंदणाणं, खिसणाणं, गरहणाणं, भविस्सइ।" . अर्थात्-पांचवें स्वप्न में द्वादश फणों वाले काले सर्प को जो देखा है उसका फल यह है कि -
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