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आवश्यक कृत्य और मूर्ति पूजा
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कराया तो उस हिंसक के हाथों से अनेक प्राणी की हिंसा रुक कर भविष्य में वही दया पालक होकर स्व-पर का कल्याण करने वाला हो सकता है, यदि किसी एक को भी बोध देकर साधु दीक्षा प्रदान करेगी तो उससे उसकी आत्मा का उद्धार होने के साथ-साथ अनेक प्रकार के परोपकार भी होंगे। इसी उद्देश्य से संयमी महाव्रती साधु अपने ही समान संयता महाव्रत धारिणी साध्वी की रक्षा करते हैं।
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यह सभी कार्य आवश्यक और अनिवार्य होने से किये जाते हैं, इनमें प्रभु की परवानगी आगमों में बताई गई है, ऐसे अपवाद के कार्य अनावश्यकता की हालत में नहीं किये जाते, यदि ऐसे कार्य बिना आवश्यकता के किए जाय तो करने वाला मुनि दण्ड का भागी होता है । साधु आहार पानी स्थंडिल गमन आदि कार्य करते हैं, यही उन्हें शारीरिक बाधाओं के कारण करना पड़ता है, बिना बाधाओं के दूर किये रत्नत्रयी का आराधन नहीं हो सकता, अतएव ऐसे कार्य को यतना पूर्वक करने में कोई हानि नहीं है ।
ऐसी आवश्यक और अनिवार्य कार्यों के उदाहरण देकर अनावश्यक और व्यर्थ की मूर्ति पूजा में प्राणी हिंसा करना, यह सरासर अज्ञान है, मूर्ति - पूजा अनावश्यक है, निरर्थक है, प्रभु आज्ञा रहित है, लाभ किचित् भी नहीं है, हानि ही है । अतएव ऐसी निरर्थक, अनावश्यक मूर्ति पूजा को उपादेय बनाने के लिए व्यर्थ चेष्टा करना बुद्धिमानी नहीं है ।
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