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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
विकास हो चुका है, साधारण-सी गणित में इस प्रकार की गलतियों का पाया जाना बड़ी दयनीय अवस्था की बात है। गणित-ग्रन्थ लीलावती के देखने से अनुमान होता है कि भास्कराचार्य के जमाने तक भी गणित का काफी सूक्ष्म ज्ञान हो चुका था मगर जैन शास्त्रकारों का गणित विषयक ज्ञान देख कर तो आश्चर्य होता है कि ऐसी गणित करने वालों के साथ सर्वज्ञता के शब्द का सम्बन्ध किस आधार पर स्थापित किया गया। गणित एक ऐसा विषय है जिसमें किसी की ढीठाई और दुराग्रह नहीं चल सकता प्रश्न की सच्ची फलावट होने पर अवश्य ही सही सही उत्तर प्राप्त होगा। मुनि श्री अमोलक ऋषि जी महाराज के भाषानुवाद कृत दक्षिण हैदरावाद वाली सूर्य-प्रज्ञप्ति के पृष्ठ ४८ में एक स्थान पर ६६६४० योजन लम्बे चौड़े व्यास की बताई हुई परिधि में एक मजे की बात देखने में आई। बताया है कि परिधि ३१५०८६ योजन १ कोस ७६८ धनुष्य ४५ अंगुल ४ यव ४ युक ६ लिख और १ बालाग्र के ३४३६७१ भाग जितनी है। एक बाल के अग्रभाग के भी लाखों में से लाखों भागों की सूक्ष्मता दिखला कर सर्वज्ञता की महिमा बढ़ाने में कमाल कर दिया गया है मगर खेद है कि Simplify ( संक्षेप ) करने पर यह संख्या कट कर छोटी हो जाती है। जैन शास्त्रों में व्यास की परिधि निकालने के लिये जो गुर Formula बताया गया है, वह इस प्रकार है कि जिस व्यास की परिधि निकालनी हो उसका वर्ग करके दस गुना करो और फिर उसका वर्गमूल
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