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जैन शास्त्रों को असंगत बातें ! अधिक प्रामाणिक होगा अथवा रस-प्रथोंके वर्णन से ? सुश्रुत में लिखे गए भल्लातक के प्रयोग द्वारा एक सहस्र वर्ष की आयु प्राप्त करने की बात पर विश्वास करके क्या किसोको सफलता मिल सकती है ? बात यह है कि जिस प्रकार हम नित्य समाचार-पत्र पढ़ते समय रायटर की खबरों और विज्ञापनों के बीच अपनी अक्ल से विवेक कर लेते हैं और विज्ञापन के वाक्यों पर, चाहे वे कितनी ही चित्ताकर्षक बातोंसे क्यों न भरें हों, जैसे हम ज्यों-का-त्यों विश्वास नहीं करते, उसी प्रकार हमें शास्त्रोंके सम्बन्ध में भी करना चाहिए। जो लोग हमें यह सिखाते हों कि हम बुद्धि को पृष्ठक्षेत्र में रखकर संस्कृत के ग्रन्थ की हर बात को वेद-वाक्य मान, वे एक प्रकार से शास्त्रों के बड़प्पनको घटाने की शिक्षा देते हैं।
वेदको हम ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं, किन्तु जिस चीजको ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं उस की सीमा भो अनन्त होनी चाहिए, क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान सीमाबद्ध हो ही नहीं सकता। ईश्वरीय ज्ञान तो सम्पूर्ण, सर्वोत्कृष्ट, प्राचीनतम और नूतनातिनूतन ही हो सकता है। किसी भी प्रकार का ज्ञान उसके बाहर नहीं छूट सकता। ऐसी हालत में यह भी मानना होगा कि वेद केवल चार संहिताओं तक ही परिमित नहीं हो सकते। बेतार के तार का साहित्य चाहे चार संहिता-रूपी वेदों में न पाया जाये ; किन्तु वह ईश्वरीय ज्ञान का अंश अवश्य है। इसलिये
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