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________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! मध्यभाग में मेरू पर्वत के बीचोंबीच से लेकर इस ऊपर बताये हुए हारवरभास समुद्र तक के सर्व क्षेत्र तक के भी वर्गमील निकालने का यदि पाठक कष्ट उठावें तो उन्हें अनुभव होगा कि हमारे अनन्त ज्ञानियों ने इन द्वीप- समुद्रों के चालीस की संख्या -तक तो भिन्न भिन्न नाम बता दिये और बाकी के द्वीप - समुद्रों को 'असंख्य' की उपाधि से विभूषित करके इतने बड़े क्षेत्र को जो इस २४८५६ मील के घेरे की पृथ्वी के गोल पिण्ड में छिपा पड़ा है - हमें बतला कर कितने वड़े ज्ञान का लाभ पहुंचाने की हमारे पर कृपा की है ! जम्बूद्वीप से प्रारम्भ करके पुष्कर द्वीप तक अढ़ाई द्वीप कहलाता है । इस अढ़ाई द्वीप तक तो १३२ सूर्य और १३२ चन्द्र परिभ्रमण कर रहे हैं और दिन-रात हो कर, समय का माप माना गया है और आबादी भी मानी गई है, परन्तु इसके बाद के असंख्य-द्वीप समुद्रों में न आबादी है और न समय का माप है यानी सूर्य-चन्द्र वहां परिभ्रमण नहीं करते, स्थिर हैं। वहां प्रकाश सर्वदा एक-सा है । अढ़ाई द्वीप के अलावा और द्वीप जब आबाद नहीं, वहाँ समय का माप नहीं, सब असंख्य द्वीप - समुद्रों की स्थिति एक सी है, तो चालीस तक की ही संख्या के नाम बताने का कष्ट क्यों उठाया गया इसकी कल्पना समझ में नहीं आती । इस प्रकार योजनों के माप में दुगुने क्रम से बढ़ते जाने वाले द्वीप और समुद्रों को बढ़ाते बढ़ाते असंख्य की गणना से बड़ी होने की पृथ्वी की कल्पना करने का केबल मात्र यही कारण मालूम पड़ता है कि पृथ्वी की असली Jain Education International For Private & Personal Use Only १५ www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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