________________
जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
में ले जाने वाला है, उसका विधान अगर किसी ग्रंथ में पाया जाता होतो वह ग्रंथ तुरन्त अप्रमाण समझ लेना चाहिये । अब हम अपने वक्तव्य को ज़रा और स्पष्टता से रखना उचित समझते हैं।
अहिंसा सत्य आदि के समान ब्रह्मचर्य भी एक प्रकारका धर्म हैं, क्योंकि उससे रागादि कषायें कम होती हैं । इसलिये इस विषय की जो क्रिया गंगादि कषायों को कम करने वाली हैं वह धर्म है; कषायों को बढ़ाने वाली हैं वह अधर्म है । यदि इन नियमों में कोई लोकाचार की क्रियाएँ मिला दी जायँ तो उसकी क्रिया लोकाचार के मुआफिक ही होगी न कि धर्म के मुआफिक। धर्म उतना ही है जितनी कषाय की निवृति होती है । अगर किसी पुरुष के हृदय में स्त्री राग उत्पन्न हुआ तो उसे रोकना ब्रह्मचर्य है । अगर उसे वह पूर्ण रूपसे रोकले तो महाव्रत हो जायगा । अगर वह पूर्ण रूपसे न रोक सके किन्तु किसी सीमाके भीतर आजाय तो अणुव्रत कहलायेगा, क्योंकि इससे उसकी राग परिणति सीमित करनेके लिये उसने एक स्त्री को चुन लिया अर्थात् विवाह कर लिया तो यह ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाया । वह एक स्त्री चाहे कुमारी हो चाहे बिधवा, ब्राह्मनी हो या शूद्र, आर्य हो या म्लेच्छ, स्वदेशीय हो या विदेशीय, उससे रागपरिणति न्यून होनेमें कोई बाधा नहीं आती। अपनी सांसारिक सुविधा के लिये इनमें से किसी खास तरह का चुनाव क्यों न किया जाय परन्तु धार्मिक दृष्टिसे उनमें
Jain Education International
२१७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org