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________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! २१५ प्रकार परीक्षाप्रधानी भी थोड़ो बहुत आज्ञा का उपयोग करता है उसी प्रकार आज्ञाप्रधानी परीक्षा का भी उपयोग करता है। हां, परीक्षाप्रधानीका दर्जा ऊँचा है, इसलिये परीक्षाप्रधानी को जहाँ तक बने आज्ञाकी तरफ न झुकना चाहिये क्योंकि इससे उसका अधःपतन होगा और आज्ञाप्रधानीको आज्ञा ही मानकर न रह जाना चाहिये क्योंकि इससे उसकी उन्नति रुकेगी। जिस प्रकार जैनकुल में उत्पन्न होनेसे या जैनधर्मका पक्ष होनेसे किसीको श्रावक कहने लगते हैं परन्तु इससे वह पंचमगुणस्थानवर्ति नहीं हो जाता, इसी प्रकार आज्ञामात्रसे कोई सम्यक्त्वी नहीं हो जाता। जिस प्रकार श्रावकों में नाममात्रके पाक्षिक श्रावकका उल्लेख किया जाता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टियोंमें नाममात्र के आज्ञासम्यक्त्वीका उल्लेख किया जाता है । खैर, पाठकोंको इतना ध्यानमें रखना चाहिये कि जिस विषयमें मनुष्य परीक्षा नहीं कर सकता, विरुद्धाविरुद्धता नहीं जान सकता वहीं आज्ञासे काम लेना चाहिये। कोई आज्ञा सिद्धान्त से विरुद्ध जाती हो. पक्षपातयुक्त मालूम पड़ती हो, युक्तिबिरुद्ध हो तो वह शास्त्रमें लिखी होने पर भी कुशास्त्रकी चीज है। उस पर श्रद्धान करना मिथ्यात्बी हो जाना है। किसी धम के शास्त्रों द्वारा.धर्माधर्म और सत्यासत्य का निर्णय करने के पहिले हमें उस धर्मके मूल सिद्धान्त जान लेना चाहिये, और उसके सूक्ष्म विवेचनोंको उस धर्मके मूलसिद्धान्तों की कसौटी पर कसना चाहिये। यदि वे उस धर्म के मूल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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