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________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! से सेवा और सहायता करे तो भी उसे एकान्त पाप होता है; तो ऐसे भावों का प्रसार करना उसके उद्देश्य के मूल पर कुठाराघात करना है । विपत्तिग्रस्त को सहायता करने, माता-पिता, पति आदि पूज्यजनों की सेवा शुश्रुषा करने, शिक्षा के लिये शिक्षालयों की व्यवस्था करने और रुग्नों के लिये चिकित्सालयों के प्रबन्ध करने आदि सार्वजनिक परोपकार के सब प्रकार के कामों को निस्वार्थ भाव से करने पर भी एक सद्-गृहस्थ को एकान्त पाप होने के भावों की पुष्टि जैन शास्त्रों से होती है - इससे इनकार नहीं किया जा सकता । जैन शास्त्रों में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, बनस्पति और त्रस इस प्रकार जीवों की ६ काय मानी गई है । हिलने - चलने वाले सब प्रकार के जीवों को काय कहा गया है और इसके अतिरिक्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और बनस्पति को स्थावर काय कहा गया है । इनके भी सूक्ष्म और बादर एवम् पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे अनेक भेद किये हैं । बनस्पति काय के दो भेद किये हैं- प्रत्येकबनस्पति काय और साधारण - बनस्पति काय प्रत्येक वनस्पति काय को छोड़ कर पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु आदि पाचों ही शूक्ष्म स्थावर कायके जीव सम्पूर्ण लोक में भरे पड़े हैं यानी संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं जिसमें ये जीव ठसाठस नहीं भरे हों । हिलने-चलने वाले सकाय के जीवों को ताड़ने, तर्जने, मारने आदि में जिस प्रकार हिंसा का होना माना गया है, उसी प्रकार इन पांच स्थावर काय के जीवों को कष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only - १८१ www.jainelibrary.org
SR No.003650
Book TitleJain Shastro ki Asangat Bate
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaccharaj Singhi
PublisherBuddhivadi Prakashan
Publication Year1945
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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