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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
भावार्थ:-किसी गांव में किसी मुनि का अपने तथा अपनी ससुराल के गृहस्थ पुरुष, गृहस्थ स्त्री, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू, धाय, नौकर नौकाराणी सेवक सेविका रहते हों, उस गांव में जाते हुए वह मुनि ऐसा विचार करे कि मैं एक दफा अन्य सब साधुओं से पहिले अपने रिस्तेदारों में भिक्षा के लिये जाऊँगा, और मुझे वहां अन्न, पान, दूध, दही मक्खन घी, गुड़, तेल, मधु, (शहद ) मद्य (शराव ) मांस, तिलपापड़ी गुड़ का पानी, बन्दी या श्रीखन्ड मिलेगा-उसे मैं सब से पहले खाकर अपने पात्र साफ करके पीछे फिर दूसरे मुनियों के साथ गृहस्थों के घर भिक्षा लेने जाऊँगा ( यदि वह मुनि ऐसा करे ) तो मुनि के लिये यह दोष की बात है। इसलिये मुनि को ऐसा नहीं करना चाहिये। किन्तु अन्य मुनियों के साथ समय पर अलग अलग कुलों में भिक्षा के लिये जाकर मिला हुवा निर्दूषण आहार लेकर खाना चाहिये।
इस ऊपर कहे पाठ से शास्त्रकार का अभिप्राय स्पष्ट मालूम हो रहा है कि यदि कोई साधु अन्य साधुओं से छिपा कर अपने कुटुम्बीजनों आदि से एक दफा आहारादि लेकर उसे खा लेवे पश्चात् पात्र साफ करके दूसरी दफा अन्य साधुओं के साथ जाकर फिर आहार लाकर खाले तो ऐसा करना साधु के लिये दोष युक्त बात है। कारण प्रथम तो अन्य साधुओं से छिपा कर अकेला खाना दोष की बात है और दूसरे बिना कारण दो बार भिक्षा लाना भी दोष की बात है। अकेला न जाकर यदि साधु
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