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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
की कोई बात सत्य की कसौटी पर ठीक नहीं उतर रही है, तो सच्चे दिल से उसकी सत्यता को ढूंढ निकालने का प्रयत्न करते; जो रहस्य छिपा हुआ है, उसका उद्घाटन करते। मगर बिना परिश्रम ही काम चले तो ऐसा करे कौन ? स्मरण रहे कि वे दिन दूर नहीं हैं कि इस प्रकार की जड़ता का फलोपभोग करना पड़ेगा। इस लेख माला में जैन कहलाये जाने वाले विद्वानों के लिये ही मैंने कुछ विषय और प्रश्न विचारने के लिये उपस्थित करने का विचार किया है जिनका मैं समुचित समाधान नहीं कर सका हूं और साथ ही उनसे यह आशा करता हूं कि वे इनका समाधान करने का प्रयत्न करेंगे।
पहिले हम भौगोलिक विषयों को ही लेते हैं जिनके लिये हमारे पास प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद हैं। जैन शास्त्रों में शास्वत वस्तुओं को मापने के लिये प्रमाणांगुल के हिसाब से एक योजन को वर्तमान माप से २००० कोस का बतलाया गया है। कइयों ने ४००० कोस का भी माना है, मगर हम २००० कोस का ही एक योजन मान लेते हैं। एक कोस की दो माइल होती है। हम जिस पृथ्वी-पिण्ड पर बसे हुए हैं वह एक गेन्द की तरह गोल पिण्ड है जिसका व्यास करीव ७६२७ माइल और परिधि करीब २४८५६ माइल की है। इसका बर्ग मील करें तो करीब १६७०००००० ( उन्नीस करोड़ सत्तर लाख ) माइल होती हैं जिसमें ५२०००००० माइल स्थल भाग और १४५०००००० माइल जल भाग है। जैन शास्त्रों में पृथ्वी को गोल न मान कर चपटी
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