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________________ - तीर्थ-जिन विशेष [१३३] तिम परतीथि देवथी, जेह अधिक विराजे, लोकोत्तर अतिशय अनंत, दीपंत दिवाजे...२... चैत्री पुनमने दिने अ, भजो अह भगवंत, श्री विजयराजसूरिंदनो, दान सफल सुख हुंत...३... .. जिन दर्शन-पूजन फल नु चैत्यवंदन सरसती देवी धरी मनरंग, उलट आणी घणुं अंग, चैत्यवंदणनो कहुं विचार, जो जो ग्रंथ तणे अनुसार...१ देहरे जावा मनमां धरे, चोथ लाभ ते पोते वरे, उभो थावे देहरा काज, छठ लाभ कह्यो जिनराज...२ जिनघर जावा उद्यम करे, अठमनो तप लाभे खरे, देहरा सामा पगला भरे, दसम लाभ तप पोते वरे...३ जिनघर पंथ प्रवत्र्ते जिसे, द्वादशनो फल लाभे तिसे, अर्ध पंथ जिसे अतिक्रमे, पासखमण फल तेणे समे...४ मासखमण फल पामे खरो, दृष्टे दीठे जिन देहरो, जेह फल पामे छे षट्मास,तेह फल पामे देहरा पास...५ वर्षी तपनो जे फल सार, ते फल पामे देहरा बार, वर्ष सहस उपवास तणो, जिन पूज्या तेहथी धणो...६ तीन प्रदक्षिणा ततक्षिण शुद्ध, दीवो दोठे बहुली बुद्ध, आरती करतां आरत जाय, मंगल दीवे मंगल थाय...७ प्रभात पूजा कही जिन आप,रयणीये कीधांटाले पाप, मध्याने जिन पूजा कही, जन्म पाप हरे ते सही...८ सात जन्म सब कोधां पाप, संध्या पूजा टाले संताप, जिनवर पूजा करवी सही, लाभ तणो तो लेखो नहीं...६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003633
Book TitleChaityavandan Sangraha Tirth Jin vishesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAbhinav Shrut Prakashan
Publication Year
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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